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सूत्रकृतांग - बारहवाँ अध्ययन - समवसरण के कर्ता आत्मा को तथा उपदेश के साधनरूप शास्त्र को एवं जिसे उपदेश दिया जाता है, उस शिष्य को तो अवश्य स्वीकार करते हैं, क्योंकि इनको माने बिना उपदेश आदि नहीं हो सकता । परन्तु सर्वशून्य - ताबाद में ये तीनों पदार्थं नहीं आते। इसलिए लोकायतिक परस्पर विरुद्ध मिश्रपक्ष का आश्रय लेते हैं । वे पदार्थ नहीं है, यह भी कहते हैं, दूसरी ओर उसका अस्तित्व भी स्वीकार करते हैं ।
बौद्ध मत के सर्वशून्यतावाद के अनुसार कोई (परलोक में) जाने वाला सम्भव नहीं कोई क्रिया, गतियाँ और कर्मबन्ध भी सम्भव नहीं है, फिर भी बौद्धशासन में ६ गतियाँ मानी गई हैं । जब गमन करने वाला कोई आत्मा ही नहीं है, तब गमन क्रिया, फलित गतियाँ कैसी ? फिर बौद्ध मान्य ज्ञान से अभिन्न ज्ञान सन्तान भी क्षणविध्वंसी होने के कारण स्थिर नहीं हैं । क्रिया न होने के कारण अनेक गतियों का होना सम्भव नहीं, बौद्ध आगमों में सभी कर्मों को अबन्धन माना है, फिर भी तथागत बुद्ध का ५०० बार जन्मग्रहण करना बताते हैं । जब कर्मबन्धन नहीं तो जन्म ग्रहण कैसे होगा ? बौद्ध ग्रन्थगत एक श्लोक में बताया है - "माता-पिता को मारकर एवं बुद्ध के शरीर से रक्त निकालकर अर्हद्वध करके तथा
स्तूप को नष्ट करने से मनुष्य अवीचिनरक में जाता है,"" यह भी कर्मबन्धन के बिना कैसे सम्भव है ? यदि सर्वशून्य है तो ऐसे शास्त्रों की रचना कैसे युक्तिसंगत हो सकती है ? यदि कर्मबन्धन कारक नहीं है, तो प्राणियों में जन्म-मरण, रोग, शोक उत्तम - मध्यम - अधम आदि विभिनताएँ किस कारण से दृष्टिगोचर होती हैं ? यह कर्म का फल प्रतीत होता है । इन सब पर से जीव का अस्तित्व, उसका कर्तृत्व, भोक्तृत्व एवं उसका कर्म से युक्त होना सिद्ध होता है, फिर भी बौद्ध सर्वशून्यतावाद को मानते हैं । यह स्पष्ट ही बौद्धों द्वारा मिश्रपक्ष का स्वीकार करना है । अर्थात् एक ओर वे कर्मों का पृथक्-पृथक् फल मानते हैं, दूसरी ओर वे सर्वशून्यतावाद के अनुसार सभी पदार्थों का नास्तित्व बताते हैं ।
सांख्य अक्रियावादी आत्मा को सर्वव्यापी मानकर भी प्रकृति के वियोग से उसका मोक्ष मानते हैं । जब मोक्ष मानते हैं तो बन्धन अवश्य मानना पड़ेगा । जब आत्मा का बन्धमोक्ष होता है तो उनके ही वचनानुसार आत्मा का क्रियावान् होना भी स्वीकृत हो जाता है, क्योंकि क्रिया के बिना बन्ध और मोक्ष कदापि सम्भव नहीं होते । अतः सांख्य भी मिश्रपक्षाश्रयी हैं, वे आत्मा को निष्क्रिय सिद्ध करते हुए अपने ही बचन से उसे क्रियावान कह बैठते हैं ।
अक्रियावादियों के सर्वशून्यतावाद का निराकरण - अक्रियावादियों के द्वारा सूर्य के उदय अस्त का चन्द्र के वृद्धि ह्रास, जल एवं वायु की गति का किया गया निषेध प्रत्यक्ष प्रमाण से विरुद्ध हैं । ज्योतिष आदि अष्टांगनिमित्त आदि शास्त्रों के पढ़ने से भूत या भविष्य की जानकारी मनुष्यों को होती है, वह किसी न किसी पदार्थ की सूचक होती है, सर्वशून्यतावाद को मानने पर यह घटित नहीं हो सकता । इस पर से शून्यतावादी कहते हैं कि ये विद्याएँ सत्य नहीं हैं, हम तो विद्याओं के पढ़ बिना ही लोकालोक के पदार्थों को जान लेते हैं; यह कथन भी मिथ्या एवं पूर्वापरविरुद्ध है ।
प्रत्यक्ष दृश्यमान वस्तु को भी स्वप्न, इन्द्रजाल या मृगमरीचिका-सम बताकर उसका अत्यन्ताभाव घोषित करना भी युक्ति - प्रमाणविरुद्ध है ।
५ "माता-पितरौ हत्वा बुद्धशरीरे च रुधिरमुत्पात्य ।
में
अर्हद्वधं च कृत्वा, स्तूपं भित्वा, आवीचिनरकं यान्ति ॥ - सू० शी०वृत्ति पत्रांक २१५
उद्ध त बौद्ध ग्रन्थोक्ति