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गाथा ५३६ से ५४४
४०७ - विवेचन- अक्रियावादी की समीक्षा-प्ररतत सात सूत्रगाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने एकान्त अक्रि.. यावादियों द्वारा मान्य अक्रियावाद के स्वरूप का प्रतिपादन किया है।
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अक्रियावाद : स्वरूप और भेद-एकान्तरूप से जीव आदि पदार्थों का जिस वाद में निषेध किया जाता है, तथा उसकी क्रिया, आत्मा कर्मबन्ध, कर्मपल आदि जहाँ बिस्कूल नहीं माने जाते, उसे अक्रियावाद कहते हैं।
अक्रियावाद के ८४ भेद होते हैं, वे इस प्रकार हैं-जीव आदि ७ पदार्थों को क्रमशः लिखकर उसके नीचे (१) स्वत: और (२) परत: ये दो भेद स्थापित करने चाहिए। फिर उन ७४२=१४ ही पदों के नीचे (१) काल (२) यहच्छा, (३) नियति, (४) स्वभाव, (५) ईश्वर और (६) आत्मा इन ६ पदों को रखना चाहिए । जैसे- जीव स्वत: यह छा से नहीं है, जीव परत: काल से नहीं है, जीव स्वतः यदृच्छा से नहीं है, जीव परत: यदृच्छा से नहीं है, इसी तरह नियति स्वभाव, ईश्वर और आत्मा के साथ भी प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं । यो जीवादि सातों पदार्थों के सात. स्वतः परतः के प्रत्येक के दो और काल आदि के ६ भेद मिलाकर कुल ७४२=१४४६-८४ भेद हुए।
एकान्त अक्रियावाद के गुण-दोष की मीमांसा-एकान्त अक्रियावादी मुख्यतया तीन हैं-लोकातिक, बौद्ध और सांस्य । अक्रियावादी लोकायतिक के मत में आत्मा ही नहीं है, तो उसकी क्रिया कहां से होगी और उस क्रिया से उत्पन्न कर्मबन्ध भी कहाँ से होगा? फिर भी लोक व्यवहार में जैसे मुट्टी का बांधना और खोलना उपचार मात्र से माना जाता है, वैसे ही लोकायतिक मत में उपचार मात्र से आत्मा में बद्ध और मुक्त का व्यवहार माना जाता है।
अक्रियावादी बौद्ध-ये सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हैं, क्षणिक पदार्थों में क्रिया का होना सम्भव नहीं है, अतः वे भी अक्रियावादी हैं । वे जो पांच स्कन्ध मानते हैं, वह भी आरोपमात्र से, परमार्थरूप से नहीं। उनका मन्तव्य यह है कि जब सभी पदार्थ क्षणिक हैं, क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं, तब न तो अवयवी का पता लगता है, और न ही अवयव का। इसलिए क्षणिकवाद के अनुसार भूत और भविष्य के साथ वर्तमान क्षण का कोई सम्बन्ध नहीं होता, सम्बन्ध न होने से क्रिया नहीं होती और क्रिया न होने से क्रियाजनित कर्मबन्ध भी नहीं होता। इस प्रकार बौद्ध अक्रियावादी हैं। तात्पर्य यह है कि बौद्ध कर्मबन्ध की आशंका से आत्मादि पदार्थों का और उनकी क्रिया का निषेध करते हैं।
अक्रियावादी सांख्य- आत्मा को सर्वव्यापक होने के कारण अक्रिय मानते हैं। इस कारण वे भी वस्तुतः अक्रियावादी हैं।
लोकायतिक पदार्थ का निषेध करके भी पक्ष को सिद्ध करने के लिए पदार्थ का अस्तित्व प्रकारान्तर से मान लेते हैं । अर्थात् पदार्थ का निषेध करते हुए भी वे उसके अस्तित्व का प्रतिपादन कर बैठते हैं। जैसे-वे जीवादि पदार्थों का अभाव बताने वाले शास्त्रों का अपने शिष्यों को उपदेश देते हुए शास्त्र
४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक २०८
(ख) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ११६