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सूत्रकृतांग - बारहवाँ अध्ययन - समवसरण
पंचास्तिकायरूप लोक में जो-जो वस्तु जिस-जिस प्रकार से द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि से शाश्वत है उसे उसी प्रकार से उन्होंने कही है । अथवा यह जीवनिकायरूप लोक (संसार) जिन-जिन मिथ्यात्व आदि कारणों से जैसे-जैसे शाश्वत ( सुदृढ या सुदीघं) होता है, वैसे-वैसे उन्होंने बताया है, अथवा जैसे-जैसे राग-द्वेष आदि या कर्म की मात्रा में अभिवृद्धि होती है, वैसे-वैसे संसाराभिवृद्धि होती है, यह उन्होंने कहा है, जिस संसार में (नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के रूप में ) प्राणिगण निवास करते हैं ।
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५४७. जो राक्षस हैं, अथवा यमलोकवासी (नारक) हैं, तथा जो चारों निकाय के देव हैं, या जो देव गन्धर्व हैं, और पृथ्वीकाय आदि षड्जीवनिकाय के हैं तथा जो आकाशगामी हैं एवं जो पृथ्वी पर रहते हैं, वे सब (अपने किये हुए कर्मों के फल स्वरूप) बार-बार विविध रूपों में (विभिन्न गतियों में ) परिभ्रमण करते रहते हैं ।
५४८. तीर्थंकरों गणधरों आदि ने जिस संसार सागर को स्वयम्भूरमण समुद्र के जल की तरह अपार (दुस्तर) कहा है, उस गहन संसार को दुर्मोक्ष (दुःख से छुटकारा पाया जा सके, ऐसा ) जानो, जिस संसार में विषयों और अंगनाओं में आसक्त जीव दोनों ही प्रकार से ( स्थावर और जंगमरूप अथवा आकाशाश्रित एवं पृथ्वी - आश्रित रूप से अथवा वेषमात्र से प्रब्रज्याधारी होने और अविरति के कारण, एक लोक से दूसरे लोक में भ्रमण करते रहते हैं ।
विवेचन - एकान्त क्रियावाद और सम्यक् क्रियावाद एवं उसके प्ररूपक - प्रस्तुत चार सूत्रों में क्रियावाद की गूढ़ समीक्षा की गई है ।
एकान्त क्रियावाद : स्वरूप और भेद - एकान्त क्रियावादी वे हैं, जो एकान्तरूप से जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व मानते हैं, तथा ज्ञानरहित केवल दीक्षा आदि क्रिया से ही मोक्षप्राप्ति मानते हैं । वे कहते हैं कि माता-पिता आदि सब हैं, शुभकर्म का फल भी मिलता है, पर मिलता है, केवल क्रिया से ही । जीव जैसी जैसी क्रियाएँ करता है, तदनुसार उसे नरक-स्वर्ग आदि के रूप में कर्मफल मिलता है । संसार में सुख-दुःखादि जो कुछ भी होता है, सब अपना किया हुआ होता है, काल, ईश्वर आदि दूसरों का किया हुआ नहीं होता ।"
नियुक्तिकार ने क्रियावाद के १८० भेद बताए हैं । वे इस एकार से हैं - सर्वप्रथम जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष, इन नौ पदार्थों को क्रमशः स्थापित करके उसके नीचे 'स्वतः' और 'परतः ये दो भेद रखने चाहिए। इसी तरह उनके नीचे 'नित्य' और 'अनित्य' इन दो भेदों की स्थापना करनी चाहिए। उसके नीचे क्रमशः काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मा इन ५ भेदों की स्थापना करनी चाहिए। जैसे - ( १ ) जीव स्वतः विद्यमान है, (२) जीव परत: ( दूसरे से ) उत्पन्न होता है, (३) जीव नित्य है, (४) जीव अनित्य है, इन चारों भेदों को क्रमशः काल आदि पांचों के साथ लेने से बीस भेद (४५ = २०) होते हैं । इसी प्रकार अजीवादि शेष ८ के प्रत्येक के बीस-बीस भेद समझने चाहिए । यों नौ ही पदार्थों के २० x ६ = १८० भेद क्रियावादियों के होते हैं।
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८ सूत्रकृतांग शी० वृत्ति पत्रांक २१८ ६ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ११६
(ख) सूत्रकृ० शी ० वृत्ति पत्रांक २१८