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________________ सूत्रांक १६८-१६९ १७० - १७१ SPOR $13 १७३-१७५ १७६ १९७७ ९७८-१८० ११ १८२ १८३-१९५ १९६-२०३ २०४-२०१ २०८-२१० .२११-२१३ २१४-२२३ २२४ २२५-२२६ '२३०-२३२ -२३३-२३७ २३८-२३६ २४०-२४१ २४२-२४६ २४७-२७७ द्वितीय उद्देशक तृतीय उद्देशक चतुर्थ उद्देशक प्रथम उद्देशक द्वितीय उद्देशक २७८-२६५. २६६-२६९ ( ४१ ) शीतोष्ण - परीषहरूपः उपसर्ग के समय मन्द साधक की दशा याचना : आक्रोश परीषह-उपसर्ग वध परीषह रूप उपसर्ग आक्रोश परीग्रह के रूप में उपसर्ग -मशक और तृणस्पर्श परोषह के रूप में उपसर्ग केशलोच और ब्रह्मचर्य के रूप में उपसर्ग वध-बन्ध परीषह के रूप में उपसर्ग उपसर्गों से आहत कायर साधकों का पलायन अनुकूल उपसर्ग सूक्ष्म संग रूप एवं दुस्तर : स्वजन संगरूप उपसर्ग विविध रूपों में भोग निमंत्रण रूप उपसर्ग : विविध रूपों में आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग : अध्यात्म विषाद के रूप में आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग विजयी साधक उपसर्ग परवादिकृत आक्षेप के रूप में : परवादि कृत आक्षेप निवारण : कौन क्यों और कैसे करें उपसर्ग - विजय का निर्देश महापुरुषों की दुहाई देकर संयम भ्रष्ट करने वाले उपसर्ग सुख से ही सुख प्राप्ति मिथ्या मान्यता रूप उपसर्ग अनुकूल कुतर्क से वासना तृप्ति रूप सुखकर उपसर्ग कौन नहीं ? कौन पश्चात्ताप करता है नारी संयोग रूप उपसर्ग दुष्कर, दुस्तर एवं सुतर उपसर्ग विजेता साधु : कौन, और कैसे ? स्त्री परिज्ञा : चतुर्थ अध्ययन पृष्ठ २४७ से २८५ प्राथमिन-परिचय स्त्री-संगरूप उपसर्ग विविध रूप सावधानी की प्रेरणाएँ : स्त्री-संग से भ्रष्ट साधकों की विडम्बना उपसंहार - - पृष्ठ १८५ १८६ १८९ 53 १६० १९१ १६२ १९३ १९५ १९६ से २०६ १९५ १९७ २०२ २०७ से ३२३ २०७ २०६ २११ २१४ २२३ २२४ से २४६ २२४ २२८ २३४ २३८ २३६ ર २४७-२४६ २५० से २७२ २५१ २७२ से २८५ २७२ २८१
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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