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________________ ३३८ सूत्रकृतांग - सप्तम अध्ययन - कुशीलपरिभाषित क्योंकि वे द्रव्यतः लवणत्यागी हैं, परन्तु ऐसा होता नहीं । भावतः लवणत्याग कर देने मात्र से भी मोक्ष नहीं होता, क्योंकि लवणत्याग के पीछे रसपरित्याग का आशय हो, तब तो दुग्ध, दधि, घृत, शर्करा (या मिष्ठान्न) आदि वस्तुएँ भी रसोत्पादक हैं, उनका भी भाव से त्याग होना चाहिए, लेकिन बहुत-से लवणत्यागी स्वादलोलुपतावश मद्य, मांस, लहसुन आदि तामसिक पदार्थों का निस्संकोच सेवन करते हैं, तब उन्हें मोक्ष कैसे होगा ? बल्कि जीवहिंसाजन्य पदार्थों के सेवन से संसार में ही निवास होगा । वास्तव में देखा जाए तो मोक्ष तो ज्ञान-दर्शन- चारित्र की भावपूर्वक साधना से होता है । सचित्त जल-शौच से मोक्ष कैसे नहीं ? - वारिभद्रक आदि भागवत जलशौचवादियों का कथन है कि जल में जैसे वस्त्र, शरीर, अंगोपांग आदि के बाह्यमल की शुद्धि करने की शक्ति है, वैसे आन्तरिक मल को दूर करने की भी शक्ति है । इसलिए शीतल जल का स्पर्श (स्नानादि) मोक्ष का कारण है । इसका निराकरण शास्त्रकार ने चार गाथाओं ( सू० गा० ३६४ से ३६७ तक) द्वारा पांच अकाट्य युक्तियों से किया है - (१) केवल सचित्त जलस्पर्श कर्मक्षयरूप मोक्ष का कारण नहीं है। बल्कि सचित्त जलसेवन से जलकायिक एवं तदाश्रित त्रस जीवों का उपमर्दन होता है, अतः जीवहिंसा से मोक्ष कदापि सम्भव नहीं है, (२) जल में बाह्यमल को भी पूर्णतः साफ करने की शक्ति नहीं है, आन्तरिक कर्ममल को साफ करने की शक्ति तो उसमें हो ही कैसे सकती है ? आन्तरिक पापमल का नाश तो भावों की शुद्धि से ही हो सकता है। भावों की शुद्धि से रहित व्यक्ति चाहे जितना जलस्नान करे उससे उसके पाप मल का नाश नहीं हो सकता। यदि शीतल जलस्नान ही पाप को मिटा देता है तो तब तो जलचर प्राणियों का सदैव घात करने वाले एवं जल में ही अवगाहन करने वाले पापी मछुए या पापकर्म करने वाले अन्य प्राणी जलस्नान करके शीघ्र मोक्ष पा लेंगे, उनके सभी पापकर्म घुल जाएंगे। फिर तो नरकलोक आदि संसार में कोई भी पापी नहीं रहेगा । परन्तु ऐसा होना असम्भव है । (३) यदि जलस्नान से ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है, तब तो मनुष्य तो दूर रहे, मत्स्य आदि समस्त जलचर प्राणियों को शीघ्र मोक्ष प्राप्त हो जाएगा, क्योंकि वे तो चौबीसों घंटे जल में ही रहते हैं । अतएव यह मान्यता मिथ्या और अयुक्त हैं । (४) जल जैसे पाप ( अशुभ कर्ममल) का हरण करता है, वैसे पुण्य ( शुभ कर्ममल) का भी हरण कर डालेगा । तब तो जल से पाप की तरह पुण्य भी धुलकर साफ हो जाएगा । और एक दिन मोक्ष के लिए किये जाने वाले अनुष्ठानों को भी वह धोकर साफ कर देगा । ऐसी स्थिति में जलस्पर्श मोक्षसाधक होने के बदले मोक्षबाधक सिद्ध होगा । (५) जितना अधिक जलस्पर्श होगा, उतना ही अधिक जलकायिक तथा तदाश्रित अनेक तसप्राणियों का घात होगा । अग्निहोत्र क्रिया से मोक्ष क्यों नहीं ? - अग्निहोती मीमांसक आदि का कथन है कि अग्नि जैसे बाह्य द्रव्यों को जला डालती है, वैसे ही उसमें घी आदि होमने से वह आन्तरिक पापकर्मों को भी जला देती है । जैसा कि श्रुतिवाक्य है- स्वर्ग की कामना करने वाला अग्निहोत्र करे । स्वर्गप्राप्ति के अतिरिक्त वैदिक लोग निष्काम भाव से किये जाने वाले अग्निहोत्र आदि कर्म को मोक्ष का भी प्रयोजक मानते हैं । इस युक्तिविरुद्ध मन्तव्य का खण्डन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं - ' एवं सिया सिद्धि कुकम्मिणं पि ।" इसका आशय यह है कि यदि अग्नि में द्रव्यों के डालने से या अग्निस्पर्श से मोक्ष मिलता हो, तब तो आग जलाकर कोयला बनाने वाले, कुम्भकार, लुहार, सुनार, हलवाई आदि सभी अग्निकाय का आरम्भ करने वालों को मोक्ष मिल जाएगा। परन्तु न तो इन अग्निकायारम्भजीवियों को मोक्ष मिल सकता है,
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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