________________
गाथा ४०१ से ४०६
३३६
और न ही अग्निस्पर्शवादियों को, क्योंकि दोनों ही अग्निकायिक जीवों का घात करते हैं । जीवघातकों का संसार में ही वास या भ्रमण हो सकता है, मोक्ष में नहीं । कर्मों को जलाने की शक्ति अग्नि में नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले तप में है । उसी की साधना से मोक्षप्राप्ति हो सकती हैं । "
इस कुशील आचार एवं विचार से, सुशील आत्मरक्षक विद्वान् साधु को बचना चाहिए, क्योंकि जीवहिंसाजनक इन कर्मकाण्डों से नरकादि गतियों में नाना दुःख उठाने पड़ते हैं । इस प्रकार गाथाद्वय (३६९-४००) द्वारा शास्त्रकार ने सावधान किया है। अपरिक्ख विट्ठ - बिना ही परीक्षा किये इस दर्शन (जलस्पर्श अग्निहोत्रादि से मोक्षवाद) का स्वीकार किया है ।
कुशील साधक की आचार भ्रष्टता
४०१. जे धम्मलद्ध ं वि णिहाय भुजे, वियडेण साहट्टु य जो सिणाति । जो धावति लूसयती व वत्थं, अहाहु से णागणियस्स दूरे ॥ २१ ॥ ४०२. कम्मं परिणाय दणंसि धीरे, विपडेण जीवेज्ज य आदिमोक्खं ।
से बीय- कंवाति अभुजमाणे, विरते सिणाणादिसु इत्थियासु ॥ २२ ॥ ४०३. जे मायरं पियरं च हेच्चा, गारं तहा पुत्त पसु धणं च । कुलाई जे धावति सादुगाईं, अहाऽऽह से सामणियस्स दूरे ॥ २३ ॥ ४०४. कुलाई जे धावति साबुगाई, आघाति धम्मं उदराणुगिद्ध े । अहाहु से आयरियाण सतंसे, जे लावइज्जा
असणस्स हेउं ॥ २४ ॥
घातमेव ।। २५ ।।
निक्खम्म दोणे परभोयणम्मि, मुहमंगलिओदरियाणुगिद्ध । नीवार गिद्ध व महावराहे, अदूर एवेहति पाणसिह लोइयस्स, अणुप्पियं भासति पासत्यं चेव कुसोलयं च निस्सारिए होति जहा पुलाए ॥ २६ ॥
४०६. अन्नस्स
सेवमाणे ।
४०१. जो ( स्वयूकि साधुनामधारी ) धर्म ( श्रमण की औद्दे शिक आदि दोषरहित धर्ममर्यादा) से प्राप्त आहार को भी संचय (अनेक दिनों तक रख) करके खाता है, तथा अचित्त जल से (अचित्त स्थान में भी अंगों का संकोच करके जो स्नान करता है और जो अपने वस्त्र को (विभूषा के लिए) धोता है तथा (शृंगार के लिए) छोटे वस्त्र को बड़ा और बड़े को ( फाड़कर) छोटा करता है, वह निर्ग्रन्थ भाव (संयमशीलता) से दूर है, ऐसा (तीर्थंकरों और गणधरों ने) कहा है ।
४०५.
८ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १५८ से १६१
& सूत्रकृतांग चूर्णि (मूलपाठ टिप्पण) १०७१