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गाथा ३९२ से १००
कर लेगा। ( अत: जल कर्ममल हरण कर लेता है, यह कथन) इच्छा (कल्पना) मात्र है । मन्द बुद्धिलोग अज्ञानान्ध नेता का अनुसरण करके इस प्रकार (जलस्नान आदि क्रियाओं) से प्राणियों का घात करते हैं।
___३६७. यदि पापकर्म करने वाले व्यक्ति के उस पाप को शीतल (सचित्त) जल (जलस्नानादि) हरण कर ले, तब तो कई जलजन्तुओं का घात करने वाले (मछुए आदि) भी मुक्ति प्राप्त कर लेंगे। इसलिए जो जल (स्नान आदि) से सिद्धि (मोक्ष प्राप्ति) बतलाते हैं, वे मिथ्यावादी हैं।
२९८. सायंकाल और प्रातःकाल अग्नि का स्पर्श करते हुए जो लोग (अग्निहोत्रादि कर्मकाण्डी) अग्नि में होम करने से सिद्धि (मोक्षप्राप्ति या सुगतिगमनरूप स्वर्गप्राप्ति) बतलाते हैं, वे भी मिथ्यावादी हैं । यदि इस प्रकार (अग्निस्पर्श से या अग्निकार्य करने) से सिद्धि मिलती हो, तब तो अग्नि का स्पर्श करने वाले (हलवाई, रसोइया, कुम्भकार, लुहार, स्वर्णकार आदि) कुकमियों (आरम्भ करने वालों, आग जलाने वालों) को भी सिद्धि प्राप्त हो जानी चाहिए।
३९६. जलस्नान और अग्निहोत्र आदि क्रियाओं से सिद्धि मानने वाले लोगों ने परीक्षा किये बिना ही इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया है । इस प्रकार सिद्धि नहीं मिलती। वस्तुतत्त्व के बोध से रहित वे लोग घात (संसार भ्रमणरूप अपना विनाश) प्राप्त करेंगे। अध्यात्मविद्यावान् (सम्यग्ज्ञानी) यथार्थ वस्तुस्वरूप का ग्रहण (स्वीकार) करके यह विचार करे कि त्रस और स्थावर प्राणियों के घात से उन्हें सूख कैसे होगा? यह (भलीभांति) समझ ले।
४००. पापकर्म करने वाले प्राणी पृथक पृथक रुदन करते हैं, (तलवार आदि के द्वारा) छेदन किये जाते हैं, त्रास पाते हैं । यह जानकर विद्वान् भिक्षु पाप से विरत होकर आत्मा का रक्षक (गोप्ता या मन-वचन-काय-गुप्ति से युक्त) बने । वह बस और स्थावर प्राणियों को भलीभाँति जानकर उनके घात की क्रिया से निवृत्त हो जाए।
विवेचन-मोक्षवादी कुशोलों के मत और उनका खण्डन-प्रस्तुत ६ सूत्रगाथाओं में विविध मोक्षवादी कुशीलों के मत का निरूपण और उनका खण्डन किया है । साथ ही यह भी बताया है कि सुशील एवं विद्वान् साधु को प्राणिहिंसाजनित क्रियाओं से मोक्ष-सुख-प्राप्ति की आशा छोड़कर इन क्रियाओं से दूर रहना चाहिए।
आहार-रसपोषक लवणत्याग से मोक्ष कैसे नहीं ?-रस पर विजय पाने से सब पर विजय पा ली; इस दृष्टि से सर्वरसों के राजा लवणपञ्चक (सैन्धव, सौवर्चल, विड़, रोम और सामुद्र इन पाँच रसों) को छोड़ देने से रसमात्र का त्याग हो जाता है। अतः लवण (रस) परित्याग से मोक्ष निश्चित है। किसी प्रति में 'आहारसंपज्जण वज्जणं' के बदले 'आहारओ पंचकवज्जणेण' पाठ भी मिलता है, तदनुसार अर्थ किया गया है-आहार में से इन पाँच (लहसुन, प्याज, ऊंटनी का दूध, गौमांस और मद्य) वस्तुओं के त्याग से मोक्ष मिलता है । यह लवणरसत्याग से मोक्षवादियों का कथन है।
शास्त्रकार सत्रगाथा ३६२ में इसका निराकरण करते हए कहते हैं-......."णस्थि मोक्खो, खारस्स लोणस्स अणासएणं'। इस पंक्ति का आशय यह है कि केवल नमक न खाने से ही मोक्षप्राप्ति नहीं होती, ऐसा सम्भव होता तो जिस देश में लवण नहीं होता, वहाँ के निवासियों को मोक्ष मिल जाना चाहिए;