SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० सूत्रकृतांग-पंचम अध्ययन-नरक विभक्ति सुस्थिरता आदि सन्दर्भ में होने से उपयुक्त अर्थ ही ठीक है। अभिजु जिया रुद्द असाहुकम्मा=वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं- (१) रौद्रकर्मणि अभियुज्य- व्यापार्य, यदि वा रौद्र सत्त्वोपघातकार्य, अभियुज्य -स्मारयित्वा । अर्थात् जिन्होने पूर्वजन्म में दुष्कर्म किये हैं, उन्हें रौद्र-हिंसादि भयंकर कार्य में प्रेरित करके या नियुक्त करके अथवा रौद्र = (पूर्वजन्मकृत) प्राणिघात वगैरह कर्म का स्मरण कराकर । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-रोद्ध असाधु कम्मा (म्मी)-अर्थ किये हैं-रौद्रादीनि कर्माणि असाधूनि येषां ते'-अर्थात् जिन्होने पूर्वजन्म में रौद्र-भयंकर खराब कर्म (पाप) किये हैं उन्हें । हत्यिवहं वहंति वृत्तिकार के अनुसार जैसे हाथी पर चढ़कर उससे भार-वहन कराते हैं, वैसे ही नारकों से भी सवारी ढोने का काम लेते हैं। अथवा जैसे हाथी भारी भार वहन करता है, वैसे ही नारक से भी भारी भारवहन कराते हैं । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है-हत्थितुल्ल बहंति नारक हाथी की तरह भार ढोते हैं, अथवा नारकों को हस्तिरूप (वैक्रिय शक्ति से) बनाकर उनसे भारवहन कराते हैं। 'आवस्स विझंति ककाणओ से-अत्यन्त कोप करके उनके मर्मस्थान को नोंकदारशस्त्र से बींध देते हैं। या चाबूक आदि के प्रहार से उन्हें सताते हैं। चर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'आरुब्म विधति किकाणतो से'- अर्थ किया गया हैं-नारक पर चढ़कर, क्यों नहीं ढोता ? यो रोषपूर्वक कहकर उसकी कृकाटिका=गर्दन नोकदार शस्त्र से बींध देते हैं। कोट्ट बलि करेंति =वृत्तिकार के अनुसार-कूटकर टुकड़े-टुकड़े करके बलि कर देते हैं, या नगरबलि की तरह इधर-उधर फेंक देते हैं । अथवा कोट्टबलि यानी नगरबलि कर देते हैं। लगभग यही अर्थ चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर 'कुट्ट (कोट्ट) बलि करेंति' के अनुसार हैं । परं सहस्साण मुहुत्तगाणं सहस्रसंख्यक मुहुत्तं से पर-प्रकृष्ट (अधिक) काल तक । चूर्णिकार-परं सहस्राणामिति परं सहस्रभ्योऽनेकानि सहस्राणीत्यर्थः । अर्थात्हजारों से पर यानी अनेक सहस्र मुहूर्तों तक-लम्बे समय तक । सयायकोवा=वृत्तिकार के अनुसारसदावकोपाः-नित्यकुपित। चूर्णिकार के अनुसार-भक्षण करके सदा अतृप्त रहते हैं, अथवा सदा अकोप्य-अनिवार्य या अप्रतिषेध्य अर्थात् सदैव निवारण नहीं किये जा सकते।' नरक में सतत दुःख प्राप्त और उससे बचने के उपाय ३४८ एयाई फासाइं फुसंति बालं, निरंतरं तत्थ चिरद्वितीय । ण हम्ममाणस्स तु होति ताणं, एगो सयं पच्चणहोति दुक्खं ॥२२॥ ३४६ जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तहेव आगच्छति संपराए। एगंतदुक्खं भवमज्जिणित्ता, वेदेति दुक्खी तमगंतदुक्खं ॥२३॥ ३५० एताणि सोच्चा परगाणि धीरे, न हिंसते कंचण सव्वलोए। एगंतदिट्ठी अपरिग्गहे उ, बुज्झिज्ज लोगस्स वसं न गच्छे ॥२४॥ ६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १३५ से १३६ तक के अनुसार (ख) सूत्रकृतांग चूणि (मू० पा० टि०) पृ० ५८ से ६२ तक
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy