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द्वितीय उद्देशक : गाथा ३२७ से ३४७
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के अनेक प्रकार के तीखे शस्त्रों से उनका पेट फाड़ देते हैं । चूर्णिकार के अनुसार - 'असिता णिसिता तिन्हा अथवा ण सिता मुण्डा इत्यर्थः असित यानी तेज, तीक्ष्ण अथवा मुंड - नंगे, यानी बंद नहीं, खुले; शस्त्रों से उनका पेट फाड़ देते हैं । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर भी है - 'उबराई फोडेंति खुरेहि तसि' - छुरी से उनके उदर फोड़ (फाड़ देते हैं । विन्नदेहं = वृत्तिकार के अनुसार--विविधं हतं पीडितं देहम् - विविध रूप से हतपीड़ित - क्षतविक्षत देह को । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - विष्ण देहं अर्थ किया गया है - विहण्णेति विहणित्ता देहं = देह को विशेष रूप से क्षतविक्षत (घायल) करके । वद्ध - "वध्रं चर्म शकलम् " = वर्ध कहते हैं चमड़ी के टुकड़े को । थूलं = बड़े भारी लोह के गोले आदि को । जुत्तं सरयंति = युक्तियुक्त - नारकों के अपने-अपने दण्ड रूप दुःख के अनुरूप ( उपयुक्त) पूर्वकृत पाप का स्मरण कराते हैं । जैसे कि - गर्म किया हुआ सीसा पिलाते समय वे याद दिलाते हैं कि तू खूब मद्य पीता था न ?' 'आरुम्स विज्झति' - वृत्तिकार के अनुसार - अकारण ही भयंकर कोप करके पीठ में चाबुक आदि के द्वारा ताड़ना करते हैं । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है- - आरम्भ विधति = अर्थात् उनकी पीठ पर चढ़कर आरा आदि नोंकदार शस्त्र बींध (भोक) देते हैं । 'पविज्जलं वृत्तिकार के अनुसार - 'रुधिरपूयादिना पिच्छिलां - रक्त और मवाद आदि होने के कारण पिच्छिल कीचड़ वाली भूमि पर । चूर्णिकार के अनुसार- विविधेण प्रज्वलं नाम पिच्छिलेन पूयसोणिण अणुलित्ततला, विगतं ज्वलं विज्जलं विज्जलां । अर्थात् - विविध प्रकार से प्रज्वल यानी पिच्छिल, मवाद और रक्त से जिसका तल अनुलिप्त हो, ऐसी अथवा जलरहित होने से वि-जल । जल के नाम पर उसमें मवाद औरखून होते हैं, इसलिए पंकिल भूमि ।
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वृत्तिकारसम्मत - 'निपातिणीहि' के बदले 'अमिपातिभीहि' पाठ अधिक संगत प्रतीत होता है, अर्थ होता है - सम्मुख गिरने वाली शिलाओं से । 'निपातिणीहि' का अर्थ भी वही किया गया है । 'ततो विडड्डा पुरुपतंति - वृत्तिकार के अनुसार- उस पाकस्थान से जलते हुए वे इस तरह ऊपर उछलते हैं, जिस तरह भाड़ में भुजे जाते हुए चने उछलते हैं । चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर और अर्थ इस प्रकार हैवे अज्ञानी नारक भय से भुजियों ( पकौड़ों) की तरह जलते (पकते ) हुए कूद जाते हैं । जं सोगतत्ता= वृत्तिकार - जिस पर पहुंचकर वे शोकसंतप्त नारक । चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर है - ' जंसि विउक्कता' और 'जंसो वियंता' - प्रथम का अर्थ है - जिस पर विविध प्रकार से ऊपर चलते हुए वे नारक, द्वितीय का अर्थ है - 'यत्र उवियंता - छुभमाना इत्यर्थः जहाँ क्षुब्ध होते हुए या छूते हुए नारक । 'सो अरियं व लढ = सूअर आदि को पाकर जैसे मारते हैं, वैसे ही नारकी जीव को पाकर । चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर हैं (१) सोवरिया व और (२) साबरिया व" प्रथम पाठान्तर का अर्थ है - ( १ ) शौर्वारिका इव वशोपगं महिषं वधयंति = जैसे कसाई वशीभूत भैंसे का वध कर डालते हैं, द्वितीय पाठान्तर का अर्थ है - 'शाबरिया - शाबराः - म्लेच्छजातयः, ते यथा विधति...तथा । शबर ( म्लेच्छजातीय ) लोग जैसे वन्य पशु को पाते
तीर आदि से बींध डालते हैं, वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है - सावयंयं व लद्ध - वश में हुए श्वापदवन्य कालपृष्ठ सूअर आदि को स्वतन्त्र रूप से पाकर सताते हैं, तद्वत् । निहं = प्राणिघातस्थान । 'चिट्ठतो तत्था बहुकूरकम्मा' – अतिक्रूर कर्मा पापी नारक वहाँ स्वकृत - पापफल भोगने के लिए रहते हैं । वृत्तिकारसम्मत पाठान्तर है - चिट्ठती बद्धा बहुकूरकम्मा = अतिक्रूर कर्मा "बंधे हुए रहते हैं ।
फलगावतट्ठा—काठ फलक (पाटिये) की तरह दोनों ओर से करवत आदि से छीले हुए या कुश ( पतले ) किये हुए । आचारांग सूत्र में फलगावतट्ठी पाठ कई जगह आता है, परन्तु वहाँ निष्कम्प दशा
५ 'फलगावतट्ठी' – ' - आचा० प्र० श्रु० विवेचन सू० १६८, २२४, २२८ - ०२३१,२७८, २८७ में देखें