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________________ ३०८ सूत्रकृतांग : पंचम अध्ययन : नरक विभक्ति गत जीव पाते हैं और उन्हें रो-रोकर सहन करते हैं, क्योंकि उन्हें सहे बिना और कोई चारा नहीं है । निष्कर्ष यह है कि दिन-रात नाना दुःखों और चिन्ताओं से सन्तप्त पापकर्मा नारकों के पास उन दुःखों से बचने का कोई उपाय नहीं होता, अज्ञान के कारण न वे समभाव पूर्वक उन दुःखों को सहन कर सकते हैं, और न ही उन दुःखं का अन्त करने के लिए वे आत्महत्या करके मर सकते हैं, क्योंकि नारकीय जीवों का आयुष्य निरूपक्रमी होता है, उनकी अकाल मृत्यु नहीं होती । वे पूरा आयुष्य भोग कर ही मरतें हैं, बीच में नहीं । यही कारण है कि वे इतने इतने भयंकर दारुण दुःखों और यातनाओं के समय, या यों कहें कि इतनी इतनी बार मारे, काटे, पीटे और अंग-भंग किये जाने पर मरना चाहते हुए भी नहीं मर सकते । सिवाय रोने-धोने, करुण क्रन्दन, विलाप, चीत्कार या पुकार करने के उनके पास कोई चारा नहीं । परन्तु उनकी करुण पुकार, प्रार्थना, विलाप या रोदन सुनकर कोई भी उनकी सहायता या रक्षा करने नहीं आता, न ही कोई सहानुभूति के दो शब्द कहता है, किसी को उनकी दयनीय दशा देखकर दया नहीं आती, प्रत्युत परमात्रार्मिक असुर उन्हें रोने पीटने पर और अधिक क्रूर बनकर अधिकाधिक यातनाएँ देते हैं । उनके पूर्व जन्मकृत पापकर्मों की याद दिलाकर उन्हें लगातार एक पर एक यातनाएँ देते रहते हैं, जो उन्हें विवश होकर भोगनी पड़ती हैं । 3 एक प्रश्न उठता है कि नरक में नारकी जीव का शरीर चूर-चूर कर दिया जाता है, उनकी चमड़ी उधेड़ दी जाती है, मृत शरीर की तरह उन्हें औंधे मुंह लटका दिया जाता है, वे अत्यन्त पीसे, काटे, पीटे और छीले जाते हैं, फिर भी मरते क्यों नहीं ? इसका समाधान सू० गा० ३३५ के उत्तरार्द्ध द्वारा करते हैं - ' संजीवणो नाम चिरद्वितिया ।' अर्थात् - नरक की भूमि का नाम संजीवनी भी है । वह संजीवनी औषधि के समान जीवन देने वाली है, जिसका रहस्य यह है कि मृत्यु-सा दुःख पाने पर भी आयुष्यबल शेष होने के कारण वहाँ नारक चूर-चूर कर दिये जाने या पानी की तरह शरीर को पिघाल दिये जाने पर भी मरते नहीं, अपितु पारे के समान बिखर कर पुनः मिल जाते हैं। नारकी की उत्कृष्ट आयु ३३ सागरोपम काल की है । इसीलिए शास्त्रकार नरकभूमि को 'चिरस्थितिका' (अत्यन्त दीर्घकालिक स्थिति वाली) कहते हैं । इसलिए नारकी जीव के मन पर उन भयंकर दुःखों की तीव्र प्रतिक्रिया होने पर भी वे कुछ कर नहीं सकते, विवश होकर मन मसोस कर पीड़ाएँ भोगते जाते हैं । पाठान्तर और व्याख्या-उबरं विकत्तंति खुरासिएहि = वृत्तिकार के अनुसार- उस्तरा, तलवार आदि - २ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १३५ से १३६ तक का संक्षिप्त सार ३ (क) सूत्रकृतांग मूलपाठ टिप्पण ( जम्बूविजयजी) पृ० ५८ से ६२ तक (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १३७ का सारांश (घ) 'औपपातिक चरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येय वर्षाऽऽयुषोऽनपवर्त्यायुप : ' - तत्वार्थ सूत्र अ०२ सू० ५३ ४ (क) ‘संजीवणा-संजीवन्तीति संजीविनः सर्व एव नरकाः संजीवणा । – सुत्रकृ० चूर्णि ( मू० पा० टि० ) पृ० ५६ (ख) 'संजीवनी - जीवनदात्री नरकभूमिः' - सूत्रकृ० शीलांक वृत्ति पत्रांक १३७
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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