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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा ३४८ से ३५१ ३५१ एवं तिरिक्खे मणुयाम रेसु, चतुरंतऽणंतं तदणुव्विवागं । सव्वमेयं इति वेदयित्ता, कंखेज्ज कालं धुवमाचरंतो ॥ २५ ॥ त्ति बेमि । ॥ णिरयविभत्ती पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ३११ ३४८. वहाँ (नरक में) चिरकाल तक की स्थिति (आयुष्य) वाले अज्ञानी नारक को ये (पूर्वगाथाओं में कहे गए) स्पर्श (दुःख) निरन्तर पीड़ित (स्पर्श) करते रहते हैं । पूर्वोक्त दुःखों से आहत होते (मारे जाते हुए नारकी जीव का ( वहाँ ) कोई भी रक्षक ( त्राण ) नहीं होता । वह स्वयं अकेला ही उन दुःखों को भोगता है । ३४९. (जिस जीव ने) जो व जैसा कर्म पूर्वजन्म ( पूर्व ) में किया है, वही संसार - दूसरे भव में आता है । जिन्होने एकान्तदुःख रूप नरकभव का कर्म उपार्जन किया (बांधा) है, वे (एकान्त) दुःखी जीव अनन्तदुःख रूप उस नरक (रूप फल) को भोगते हैं । ३५०. बुद्धिशील धीर व्यक्ति इन नरकों (के वर्णन) को सुनकर समस्त लोक में किसी भी प्राणी) की हिंसा न करे, (किन्तु ) एकान्त (एकमात्र ) ( जीवादि तत्त्वों, आत्मतत्त्व या सिद्धान्त पर ) दृष्टि ( विश्वास रखता हुआ), परिग्रहरहित होकर लोक ( अशुभ कर्म करने और उसका फल भोगने वाले जीवलोक) को समझे (अथवा कषायलोक का स्वरूप जाने) किन्तु कदापि उनके वश में (अधीन) न हो, अर्थात् उनके प्रवाह में न बहे । ३५१. (पापकर्मी पुरुष की पूर्वगाथाओं में जैसी गति बताई है) इसी तरह तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों में भी जाननी चाहिए । चार गति रूप अनन्त संसार है, उन चारों गतियो में कृतकर्मों के अनुरूप विपाक (कर्मफल) होता है, इस प्रकार जानकर बुद्धिमान पुरुष मरणकाल की प्रतीक्षा या समीक्षा करता हुआ ध्रुव (मोक्षमार्ग, संयम या धर्मपथ) का सम्यक् आचरण करे । - ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन - नरक में प्राप्त होने वाले दुःख तथा उनसे बचने के लिए उपाय - प्रस्तुत चार गाथाओं में से प्रस्तुत उद्देशक तथा अध्ययन का उपसंहार करते हुए शास्त्रकार ने प्रारम्भ की दो सूत्रगाथाओं (३४८, ३४९) में नारकीय जीव को कैसे-कैसे, कितने-कितने दुःख कब तक और मिलते हैं ? उन दुःखों से उस समय कोई छुटकारा हो सकता है या नहीं ? उन दुःखों में कोई हिस्सेदार हो सकता है या नहीं ? उन दुःखों से कोई भगवान देवी या देव शक्ति उसे बचा सकती है या नहीं ? इन रहस्यों का उद्घाटन इस प्रकार किया हैं - नरक में पूर्वोक्त तीनों प्रकार के दुःख प्राप्त होते हैं- इस अध्ययन के प्रथम और द्वितीय उद्देशक में पूर्वगाथाओं में उक्त सभी प्रकार के दुःख नारकों को नरक में मिलते हैं, उन दुःखों में से कई दुःख परमाधार्मिककृत होते हैं, कई क्षेत्रजन्य होते हैं और कई दुःख नारकों द्वारा परस्पर - उदीरित होते हैं । इन दुःखो में लेशमात्र भी कमी नहीं होती । अपनी-अपनी स्थिति तक सतत दुःखों का तांता - समस्त संसारी जीवों में नारकों की स्थिति सर्वार्थ सिद्ध विमान को छोड़कर) सर्वाधिक लम्बी होती है । शास्त्रानुसार सातों नरकों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः १, ३, ७, १०, १७, २२ और ३३ सागरोपम काल की है। इसलिए जिस नारक की जितनी उत्कृष्ट
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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