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________________ ३०० सूत्रकृतांग - पंचम अध्ययन - नरक विभक्ति बाहर खींचकर उसमें तीखे शूल भौंककर अत्यन्त दुःख देते हैं । (१८) जिन कटे हुए अंगों से रक्त, मवाद और मांस चूते रहते हैं, उन पर ये असुर खार छिड़कते रहते हैं, (१६) रक्त और मवाद से भरी कुम्भियों में डालकर आर्तनाद करते हुए नारकों को पकाते हैं, (२०) पिपासाकुल नारकों को ये बलात् गर्म किया हुआ सीसा और ताँबा पिलाते हैं । और इस प्रकार की विविध यातनाएँ परमाधार्मिक नरकपाल नारकों को देते रहते हैं । उन्हें नारकों को दुःख देने में आनन्द आता है । वे नारकों को उनके पूर्वजन्म कृत पापकर्मों का इस प्रकार स्मरण दिलाते हैं - 'मूर्ख ! तू बड़े हर्ष के साथ प्राणियों का मांस निर्दयतापूर्वक काट-काटकर खाता था, उनका रक्त पीता था, तथा मदिरापान एवं परस्त्री गमन आदि कुकर्म करता था । अपने किये हुए पापकर्मों को याद कर अब उन पापकर्मों का फल भोगते समय क्यों रोता-चिल्लाता हैं ? न भस्मीभूत, न मृत, चिरकाल तक दुःखित जब उन नारकों को नरकपाल आग में डालते हैं, उनके अंग तोड़फोड़ डालते हैं, उन्हें इतने जोर से मारते-पीटते, शूलों से बींधते काटते- छेदते हैं, तब वे भस्मीभूत या मृत हो जाते होंगे ? इस शंका के समाधानार्थ शास्त्रकार सू० गा० ३१५ में कहते हैं- " नो चेव ते तत्थ मसीभवंति दुक्खी इह दुक्कडेंण ।" इसका आशय यह है कि इतनी वर्णनातीत अनुपमेय वेदना का अनुभव करते हुए भी जब तक अपने कर्मों का फल भोग शेष रहता है, 'या आयुष्य बाकी रहता है, तब तक वे न तो भस्म होते हैं और न ही वे मरते हैं । जिस नारक का जितना आयुष्य है उतने समय तक नरक के तीव्र से तीव्र दु:ख उन्हें भोगने ही पड़ते हैं । * पाठान्तर और व्याख्या- 'कोले हि विज्झति' = चूर्णिकार के अनुसार- 'कोलो नाम गलओ कोल मछली पकड़ने वाले कांटे या किसी अस्त्र विशेष का नाम है । तदनुसार अर्थ होता हैं - मछली पकड़ने वाले rich से या अस्त्र विशेष से बींध डालते हैं, वृत्तिकार के अनुसार पाठान्तर है - कीलहि विज्झति - अर्थ किया गया है - 'कीले कण्ठेषु विध्यन्ति - कण्ठो में (कीलें ) चुभो देते । 'सजीव मच्छे व अओकवल्ले'= जीती हुई मछली की तरह लोह की कड़ाही में; चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - 'सज्जोव्व मच्छे व अओकवल्ले' | 'सज्जोमच्छे' के चूर्णिकार ने दो अर्थ किये हैं- ( १ ) जीता हुआ मत्स्य, और (२) सद्यः तत्काल मरा हुआ मत्स्य । उसकी तरह लोह के कड़ाह में तड़फड़ाता हुआ । तहि च ते लोलण - संपगाढे - वृत्तिकार के अनुसार - नारकों की हलचल से भरे ( व्याप्त) उस महायातना स्थान नरक में वे (नारक), चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - 'हपि ते लोलुअसंपगाढे - दुःख से चंचल - लोलुप नामक उस नरक में अत्यन्त गाढ़ - निरन्तर यानी उस लोलुय नरक में भी ठसाठस भरे हुए वे नारक । 'सरहं दुहेंति' = वृत्तिकार के अनुसार नारकों को वे सोत्साह दुःख देते हैं । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है- 'सहरिसं दुहति' - अर्थ होता है - सहर्ष दुःख देते है । ‘अंबूसु’—बेड़ियो में । तलसंपुब्व - वृत्तिकार के अनुसार हवा से प्रेरित ताल (ताड़) के पत्तों के ढेर की तरह । चूर्णिकार सम्मत पाठ है-तलसं पुडच्च – हथेली से बंधी हुई या हाथों में ली हुई अर्चा यानी देह (यहाँ शरीर को अर्चा कहा गया है) वाले । पपयंति (पपतंति ) = जोर से गिराते हैं । वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है - पययंति प्रपचति - अच्छी तरह से पकाते है । ५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२८ से १३३ तक का सारांश ६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२८ से १३३ तक (ख) सूयगडंग चूर्णि ( मू० पा० टिप्पण) पृ० ५५ से ५७
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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