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________________ प्रथम उद्देशक : गाथा ३०५ से ३२४ २६९ होता है । सुख उन्हें कहीं ढूंढे भी नहीं मिलता, क्योंकि नरकभूमि का स्वभाव ही दुःख देना है। यह थान नारकों को गाढबन्धन (निधत्त-निकाचितरूप बन्धन) से बद्ध कर्मों के वश मिलता है। यही बात सू० गा० ३२० के पूर्वार्द्ध में स्पष्ट बताई है-सदा कसिणं पुण धम्मट्ठाणं गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्मं ।" वैतरणी नदी को तीक्ष्ण जलधारा का स्पर्श कितना दुःखदायी ?-वैतरणी नरक की मुख्य विशाल नदी है। उसमें रक्त के समान खारा और गर्म जल बहता रहता है। उसकी जलधारा उस्तरे के समान बड़ी तेज है । उस तीक्ष्ण धारा के लग जाने में नारकों के अंग कट जाते हैं। यह नदी बहुत ही गहन एवं दुर्गम है । नारकी जीव अपनी गर्मी और प्यास को मिटाने हेतु इस नदी में कूदते हैं, तो उन्हें भयंकर दुःखों का सामना करना पड़ता है। कई बार बैलों को आरा भौंककर चलाये जाने या भाले से बींधकर चलाये जाने की तरह नारकों को सताकर इस नदी में कूदने और इसे पार करने को बाध्य कर दिया जाता है। कितना दारुण दुःख है-तीक्ष्ण स्पर्श का और विवशता का। इसी तथ्य को शास्त्रकार व्यक्त करते हैं'जइ ते सुया वेयरणी....."खुर इवतिक्खसोया"..."सत्तिस हम्ममाणा।' परमाधार्मिक कृत दुःख और भी भयंकर-जब से कोई जीव नरक में जाता है, तभी से परमाधार्मिक असुर उसके पीछे भूत की तरह लग जाते हैं, और तीसरे नरक तक वे आयु पूर्ण होने तक उसके पीछे लगे रहते हैं, वे तरह-तरह से उस नारक को यातनाएँ देते रहते हैं। वे परमाधार्मिक १५ प्रकार के हैं, जिनका परिचय अध्ययन के प्राथमिक में दिया गया है। नरक में नारकी जीव के उत्पन्न होते ही वे मारो, काटो, जला दो, तोड़ दो आदि शब्दों से नारक को भयभीत और संज्ञाशून्य कर देते हैं । शास्त्रकार ने इन नरकपालों द्वारा नारकों को दिये जाने वाले दुःख की संक्षिप्त झांकी इस उद्देशक की सू० गा० ३०५, ३०७, ३०८, ३०६, ३१२, ३१३, ३१४, ३१६, ३१७, ३१८, ३२१, ३२२ तथा ३२४ में दी हैं। संक्षेप में इनका परिचय इस प्रकार है-(१) नरक में उत्पन्न होते ही नारक को ये भयंकर शब्दों से भयभीत कर देते हैं, (२) वैतरणी नदी में बलात् कूदने और तैरने को बाध्य कर देते हैं। (३) नौका पर चढ़ते समय नारकों के गले में कील भौंककर स्मृति रहित कर देते हैं. (४) लम्बे शूलों और त्रिशूलों से बींध कर जमीन पर पटक देते हैं, (५) नारकों के गले में शिलाएँ बाँधकर अगाध जल में डुबो देते हैं, (६) तपी हुई रेत, या भाड़ की तरह तपी हुई आग में डालकर पकाते हैं, फेरते हैं, (७) चारों दिशाओं में चार अग्नियाँ लगाकर नारकों को तपाते हैं, (८) नारकों के हाथ पैर बांधकर उन्हें कुल्हाड़े से काटते हैं, (8) नारकों का सिर चूर-चूरकर देते हैं, अंग मल से फूल जाता है। (१०) पीड़ा से छटपटाते हुए नारकों को उलट-पलट करके जीवित मछली की तरह लोहे की कड़ाही में पकाते हैं, (११) नारकी जीवों को बार-बार तीव्र वेग से पीड़ित करते हैं । (१२) पापी परमार्मिक नारकों के विविध प्राण-अंगोपांग काटकर अलग-अलग कर देते हैं, (१३) पापात्मा परमाधार्मिक असुर पूर्व जन्म में नारकों द्वारा किये गए दण्डनीय पापकर्मों को याद दिलाकर उनके पापकम उनके पापकर्मानुसार दण्ड देते हैं। (१४) नरकपालों की मार खाकर हैरान नारक मल-मूत्रादि बीभत्स रूपों से पूर्ण नरक में गिरते हैं, (१५) नारकों के शरीर को बेड़ी आदि बंधनों में जकड़ कर उनके अंगोपांगों को तोड़ते-मरोड़ते हैं, मस्तक में छेद करके पीड़ा देते हैं, (१६) नारकों के नाक, कान और ओठ को उस्तरे से काट डालते हैं। (१७) जीभ एक बित्ताभर ४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १२८ से १३३ तक के आधार पर
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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