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द्वितीय उद्देशक : गाथा २७८ से २६५
२७६ खिलाने की क्रिया द्वारा कठोर आदेश-या तो अपने लाल को संभालो नहीं तो छोड़ दो, मैं नहीं संभाल सकती। (७) स्त्रीमोही परुष (प्रिया की आज्ञासे) रात-रात भर जागकर धाय की तरह बालक को छाती से चिपकाए रखता है। प्रिया का मन प्रसन्न रखने के लिए निर्लज्ज होकर धोबी की तरह उसके और वच्चे के कपड़े धोने पड़ते हैं।
___ निष्कर्ष यह है कि अपने पर गाढ अनुरक्त देख कर स्त्री कभी पुत्र के निमित्त से, कभी अन्यान्य प्रयोजनों से, कभी अपनी सुख-सुविधा के लिए पुरुष को एक नौकर समझ कर जब-तब आदेश देती रहती है और स्त्रीमोही तथा पुत्रपोषक पुरुष महामोहकर्म के उदय से इहलोक और परलोक के नष्ट होने की परवाह न करके स्त्री का आज्ञा-पालक बन कर सभी आज्ञाओं का यथावत् पालन करता है। शास्त्रकार इसी तथ्य को स्पष्टतः व्यक्त करते हैं- "आणप्पा हवंति दासा व ।
ऐसे विडम्वनापात्र पुरुष पांच प्रकार के-शास्त्रकार ने स्त्री वशीभूत पुरुषों की तुलना पाँच तरह से की है-(१) दास के समान, (२) मृग के समान, (३) प्रेष्य (नौकर) के समान, (४) पशु के समान और (५) सबसे अधम नगण्य ।
दास के समान -- इसलिए कहा गया कि स्त्रियाँ निःशंक होकर उन्हें गुलाम (दास) की तरह (पूर्व गाथाओं में उक्त) निकृष्टकामों में लगाती हैं। मग के समान-इसलिए कहा गया कि जैसे जाल में पड़ा हुआ मृग परवश हो जाता है वैसे ही कामजाल में पड़ा हुआ स्त्री, वशीभूत पुरुष भी इतना परवश हो जाता है कि स्वेच्छा से वह भोजनादि कोई भी क्रिया नहीं कर पाता। क्रीतदास या प्रेष्य के समानइसलिए कहा गया है कि उसे नौकर की तरह काम में लगाया जाता है । पशु के समान इसलिए कहा गया है कि स्त्री-वशीभूत पुरुष भी पशु की तरह कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से शून्य तथा हितप्राप्ति एवं अहितत्याग से रहित होते हैं। जैसे पशु आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृति को ही जीवन का सर्वस्व समझते हैं, वैसे ही स्त्रीवशीभूत पुरुष भी अहर्निश भोग प्राप्ति, सुखसुविधाओं की अन्वेषणा कामभोगों के लिए स्त्री की गुलामी, ऊँट की तरह रातदिन तुच्छ सांसारिक कार्यों में जुटे रहने एवं उत्तम निरवद्य अनुष्ठानों से दूर रहने के कारण पशु-सा ही है । अथवा स्त्रीवशीभूत पुरुष दास, मृग, प्रेष्य और पशु से भी गया बीता, अधम और नगण्य है। वह पुरुष इतना अधम है कि उसके समान कोई नीच नहीं है, जिससे उसकी उपमा दी जा सके । अथवा उभयभ्रष्ट होने के कारण वह पुरुष किसी भी कोटि में नहीं है, कुछ भी नहीं है। अथवा इहलोक-परलोक का सम्पादन करनेवालों में से वह किसी में भी नहीं है। इसी बात को शास्त्रकार अभिव्यक्त करते हैं- "दासे मिए व पेस्से वा पसुभूतेवासे ण वा कहे ।"
कठिन शब्दों की व्याख्या- ओए ओज, द्रव्य से परमाणुवत् अकेला और भाव से राग-द्वषरहित । सदा-सदा के लिए या कदापि। भोगकामी पूणो विरज्जेज्जा=वत्तिकार के अनुसार यदि मोहोदयवश कदाचित् साधु भोगाभिलाषी हो जाए तब स्त्री सम्बन्धी भोगों से होने वाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुःखों का विचार करके पुनः उन स्त्रियों से विरक्त हो जाऐ, चूर्णिकार के अनुसार भोगकामी पुनः विशेष रूप से रक्तगृद्ध हो जाता है। तो पेसंति तहाभूतेहि-मदन रूप कामों में जिसकी मति (बुद्धि या मन) की वृत्ति-प्रवृत्ति है, अथवा काम-भोगों में जो अतिप्रवृत्ति है, कामाभिलाषी है। पलिभिदिया यह मेरी बात
५ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११६