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________________ २७६ सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा मुझे छोड़कर अन्यत्र कहीं नहीं जाओगे । मैं तुम्हारा वियोग क्षणभर भी नहीं सहन कर सकूँगी। तुम मुझे जो भी आज्ञा दोगे, मैं उसका पालन निःसंकोच करूंगी।" इस प्रकार कामुक नारी भद्र साधु को वचनबद्ध करके विडम्बित करती है, कामजाल में फंसा कर उसका जीवन दुःखित कर देती है इसी विडम्बना को द्योतित करने के लिए सूत्रगाथा २८० द्वारा शास्त्रकार कहते हैं- 'जइ केसियाए "नन्नऽत्य मए चरिज्जासि ।' तीसरी विडम्वना-स्त्रियाँ अपने प्रति मोहित शीलभ्रष्ट साधु को कोमल ललित वचनों से दुलार कर आश्वस्त-विश्वस्त करके वचनबद्ध कर लेती हैं, और जब वे भली-भाँति समझ लेती हैं कि अब यह साधु मेरे प्रति पक्का अनुरागी हो गया है, तब वह उस साधु को प्रतिदिन नई-नई चीजों की फरमाइश करती है, कभी गृहोपयोगी, कभी अपने साज-सज्जा शृंगार की और कभी अपनी सुख सुविधा की वस्तु की माँग करती रहती है, अपनी प्रेमिका की नित नई फरमाइशें सुन-सुनकर वह घबरा जाता है, तब उसे आटे-दाल का भाव मालूम होता है कि गृहस्थी बसाने में या किसी स्त्री के साथ प्रणय सम्बन्ध जोड़ने पर कितनी हैरानी होती है ? अर्थाभाव या आर्थिक संकट के समय कितनी परेशानी भोगनी पड़ती है। प्रेमिका द्वारा की गई मांगों को ठुकरा भी नहीं सकता, पूर्ति से इन्कार भी नहीं कर सकता बरबस उन माँगों की पूर्ति करते-करते उसकी कमर टूट जाती है, थोड़े-से विषय सुख के बदले कई गुना दुःख पल्ले पड़ जाता है । यह भयंकर विडम्बना नहीं तो क्या है ? कामिनियाँ यो एक पर एक फरमाइशें प्रायः मोहमूढ एवं स्त्रीवशवर्ती भ्रष्ट साधक से किया करती हैं। इन सब फरमाइशों के अन्त में लाओ-लाओ का संकेत रहता है । अगर वह किसी माँग की पूर्ति नहीं करता है तो प्रेमिका कभी झिड़कती है, कभी मीठा उलाहना देती है, कभी आँखें दिखाती हैं, तो कभी झठी प्रशंसा करके अपनी मांग पूरी कराती है। ललनासक्त पुरुष को नीचा मुह किये सब कुछ सहना पड़ता है। यह कितनी बड़ी विडम्बना है। फिर तो रात-दिन वह तेली के बैल की तरह घर के कार्यों में ही जुता रहता है, साधना ताक में रख दी जाती है । इसी तथ्य को शास्त्रकार (सूत्रगाथा २८१ से २६२ तक) १२ गाथाओं द्वारा प्रकट करते हैं--"अहणं से होती "अदु पुत्तदोहलढाए"।" चौथी विडम्बना-पूर्वोक्त तीनों विडम्बनाओं से यह विडम्बना भयंकर है। इस विडम्बना से पीड़ित होने पर शीलभ्रष्ट साधक को छठी का दूध याद आ जाता है। प्रेमिका नारी जब जान लेती है कि यह भूतपूर्व साधु अब पूरा गृहस्थी बन गया है, मुझ पर पूर्ण आसक्त है, और अब यह घर छोड़कर कहीं जा नहीं सकता, तब वह उस पुरुष को मौका देखकर विभिन्न प्रकार की आज्ञा देती है जैसे(१) जरा मेरे पैरों को महावर आदि से रंग दो, या मेरे पात्रों को रंग दो, (२) इधर आओ, मेरी पीठ में दर्द हो रहा है, जरा इसे मल दो, (३) मेरे वस्त्रों की अच्छी तरह देखभाल करो, इन्हें सुरक्षित स्थान में रखो, ताकि चूहे, दीमक आदि नष्ट न करें, (४) मुझ से लोच की पीड़ा सही नहीं जाती, अत: नाई से बाल कटवा देने होंगे, (५) मैं शौच के लिए बाहर नहीं जा सकती, अतः शौचादि के लिए एक शौचालय (व!गृह) यहीं खोदकर या खुदवाक़र बना दो, (६) पुत्र उत्पन्न होने पर उसे संभालने, रखने और ४ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११५ से ११८ तक
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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