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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा २७८ से २६५ २७७ श्रमण शब्द का प्रयोग करते हुए कहते हैं- भोगे समणाण....।' जो साधु स्त्री सम्बन्धी कामभोग-सेवन से होने वाली घोर हानि एवं हंसी की उपेक्षा करके धृष्ट होकर भोग-सेवन में प्रवृत्त हो जाते हैं, उनकी कैसी-कैसी दुर्दशा या विडम्बना होती है ? यह विस्तार से बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं'....सुहा, जह भुजति भिक्खुणो एगे।' अर्थात-शास्त्रकार स्त्री सम्बन्धी भोगों में आसक्त शीलभ्रष्ट साधकों का बुरा हाल अगली १७ गाथाओं में स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हैं। चार प्रकार की मुख्य विडम्बनायें-चारित्रभ्रष्ट, स्त्रियों में मूछित, काम-भोगों में प्रवृत्त साधुवेषी साधक की जो भयंकर विडम्बनाएं होती हैं, उन्हें मुख्यतया चार प्रकारों में बांटा जा सकता है(१) स्त्री वशीभूत साधक के सिर पर स्त्री लात मारती है, (२) अपने साथ रहने के लिए विवश कर देती हैं, (३) घुल-मिल जाने पर नित नई चीजों की फरमाइश करती हैं; और (४) नौकर की तरह उस पर हुक्म (आज्ञा) चलाती है। पहली विडम्बना-जब मायाविनी नारियाँ शीलभ्रष्ट साधु को उसकी वृत्ति-प्रवृत्ति, रंग-ढंग, चाल-ढाल और मनोभावों पर से जान लेती हैं कि यह पूरी तरह हमारे वश में हो गया है। अब हम जैसे इसे कहेंगी, वैसे ही यह बिना तर्क किये मान लेगा, तब वे सर्वप्रथम उसे पक्का गुलाम बनाने की दृष्टि से उसके प्रति किये हुए उपकारों का बखान करती हुई तरह-तरह की बातें कहती हैं। - वे नारियाँ जब रूठने का-सा स्वांग करके नाराजी दिखलाती हैं, तब स्त्रियों का दास बना हुआ वह शीलभ्रष्ट साधु उन रुष्ट कामिनियों को मनाने और उन्हें प्रसन्न करने के लिए अनुनय-विनय करता हैं, उनके निहोरे करता है, दीन बनकर उनके चरणों में गिरता है, उनकी झूठ-मूठ प्रशंसा भी करता है। इतने पर भी रूठी हुई स्त्रियाँ उस कामासक्त साधु की वशवर्तिता और चारित्र दुर्बलता जानकर नही मानती और नाराज होकर उसके सिर पर लात दे मारती हैं, किन्तु स्त्री-मोहित मूढ साधक उन कुपित स्त्रियों की मार भी हंसकर सह लेता है। यह कितनी भयंकर विडम्बना है, कि वह श्रमणसिंह होता हुआ भी स्त्री परवशता के कारण स्त्रियों के आगे दीन-हीन कायर और गुलाम बन जाता है। शास्त्राकार सूत्रगाथा २७६ में भ्रष्ट साधक की इसी विडम्बना को व्यक्त करते हैं-'अह तं तु" पायमुटटु मुद्धि पहणंति ।' __दूसरी विडम्बना-कई कामुक नारियाँ एक बार शीलभ्रष्ट होने के बाद उस साधु को अपने केशों की लटें दिखलाती हुई कहती है- “अगर मेरे इन केशों के कारण तुम मेरे साथ रमण करने में लज्जित होते हो तो लो, मैं अभी इसी जगह इन केशों को नोंच डालती हूँ।" (केश लुञ्चन तो उपलक्षण मात्र है, कामिनी साधु को वचनबद्ध करने के लिए कहती है-) मैं ये केश भी उखाड़ डालूंगी, और इन आभूषणों को भी उतारने में नहीं हिचकूँगी, और भी विदेशगमन, धनोपार्जन आदि कठोर से कठोर दुष्कर काम भी मैं तुम्हारे लिए कर लूंगी, सभी कष्टों को सह लूँगी, बशर्ते कि तुम मेरी एक प्रार्थना को स्वीकार करो, और मुझे वचन दो तुम मेरे सिवाय अन्य किसी भी स्त्री के साथ विहरण नहीं करोगे ३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ११५ पर से
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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