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सूत्रकृतांग : चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिमा जा रहा है, यह समझ ले । णो इच्छे अगारमागंतु =वृत्तिकार के अनुसार इसके दो अर्थ हैं-(१) साधु उस मायाविनी स्त्री के घर बार-बार जाने की इच्छा न करे, अथवा (२) साधु संयमभ्रष्ट होकर अपने घर जाने की इच्छा न करे। चूर्णिकारसम्मत दो पाठान्तर हैं-(१) गो इच्छेज्ज अगारंगंतु, (२) 'णो इच्छेज्ज अगारमावत' पहले पाठान्तर का अर्थ पूर्ववत् है। दूसरे पाठान्तर का अर्थ है-साधु ऐसी मायाविनी स्त्रियों के गृहरूपी भँवर में पड़ने की इच्छा न करे।
बिइओ उद्देसओ स्त्रीसंग से भ्रष्ट साधकों की विडम्बना
२७७. ओए सदा ण रज्जेज्जा, भोगकामी पुणो विरज्जेज्जा।
भोगे समणाण सुणेहा, जह भुजंति भिक्खुणो एगे ॥१॥ २७६ अह तं तु भेदमावन्न', मुच्छितं भिक्खु काममतिवट्ट।
पलिभिदियाण तो पच्छा, पादुद्ध? मुद्धि पहणंति ॥२॥ २८०. जइ केसियाए मए भिक्खू, णो विहरे सह णमित्थीए।
केसाणि वि हं लुचिस्सं, नऽन्नत्थ मए चरिज्जासि ॥ ३॥ २८१. अह णं से होति उवलद्धो, तो पेसंति तहाभूतेहिं ।
लाउच्छेदं पेहाहि, वग्गुफलाइं आहराहि त्ति ॥ ४॥ २८२. दारूणि सागपागाए, पज्जोओ वा भविस्सती रातो।
पाताणि य मे रयावेहि, एहि य ता मे पट्टि उम्मदे ॥५॥ २८३ वत्थाणि य मे पडिलेहेहि, अन्नपाणं च आहराहि त्ति ।
गंधं च रओहरणं च, कासवगं च समजाणाहि ॥ ६ ॥ २८४. अदु अंजणि अलंकारं, कुक्कुहयं च मे पयच्छाहि ।
लोखंच लोद्धकुसुमं च, वेणुपलासियं च गुलियं च ॥७॥
६ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १०४ से ११३ तक के अनुसार
(ख) सूयगडंग चूणि (मू० पा० टि० जम्बूविजय जी सम्पादित) पृ० ४५ से ५० तक