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प्रथम उद्देशक : गाथा २४७ से २७७
२७१ हों। कहीं पाठान्तर है-'तम्हा समणा उ जहाहि आयहियाओ सन्निसेज्जाओ।'- स्त्री सम्बन्ध अनर्थकर होता है इसलिए हे श्रमण ! आत्महित (स्वकल्याण) की दृष्टि से खास तौर से (सत्रिषद्याओं) स्त्रियों की बस्तियों (आवास स्थानों) का, अथवा स्त्रियों के द्वारा की हुई सेवाभक्ति रूप माया (विलास स्थली) का त्याग कर दो। मिस्सीभावं पत्थुता=वृत्तिकार के अनुसार द्रव्य से साधुवेष होने से, किन्तु भाव से गृहस्थ के समान आचार होने से मिश्रभाव-मिश्रमार्ग को प्रस्तुत प्राप्त या मिश्रमार्ग की प्रशंसा करने वाले। पाठान्तर है-'मिस्सीभावं पण्णता' (पणता) अर्थ होता है-मिश्रमार्ग की प्ररूपणा करने वाले, अथवा मिश्रमार्ग की ओर प्रणत-झुके चणिकारसम्मत पाठान्तर है-'मिस्सीभावपण्हया'=पण्हता नाम गौरिव प्रस्नता। गाय के स्तन से दध झरने की तरह (विचारधारा) झरने को प्रस्तूत (पण्हत) कहते हैं। जिनकी वाणी से मिश्रमार्ग की विचारधारा ही सतत झरती रहती है, वे । धुवमग्गमेव ध्रुव के दो अर्थ हैं-मोक्ष या संयम, उसका मार्ग ही बताते-कहते हैं। तहावेदा=वृत्तिकार के अनुसार-उस मायावी साधु के तथारूप अनुष्ठान (काली करतूत) को जो जानते हैं, वे तथावेद-तद्विद कहलाते हैं । चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है-'तधावेता' अर्थ है – '...."तथा वेदयन्तीति तथावेदाः कामतंत्रविद इत्यर्थः । तथाकथित वेत्ता अर्थात -कामतंत्र (कामशास्त्र) के वेत्ता (ज्ञाता)। इथिवेदखे दण्णा=इसके दो अर्थं फलित होते हैं- (१) स्त्रीवेद के खेदज्ञ=निपुण, (२) स्त्रियों के वेद-वैशिक कामशास्त्र के अनुसार स्त्रीसम्बन्ध जनित खेद (चिन्ताओं) को जानने वाले।
आइट्ठोवि=वृत्तिकार के अनुसार आदिष्ट या प्रेरित किया जाता हुआ, चूर्णिकारसम्मत पाठ हैआउट्ठोवि, अर्थ किया गया है-आकष्टो नाम चोदितः, अर्थात्-आकष्ट-आचार्यादि के द्वारा झिड़कने पर अथवा अपने पाप प्रकट करने के लिए प्रेरित किये जाने पर । वद्धमंस उक्कते=वृत्तिकार के अनुसार चमड़ी और मांस भी उखाड़े या काटे जा सकते हैं। चूर्णिकार के अनुसार-'पृष्ठोवंध्राणि उत्कृत्यन्ते' अर्थात् -पीठ की चमड़ी उधेड़ी जाती है । तच्छिय खारसिंवणाई-वृत्तिकार के अनुसार-वसूले आदि से उसके अंगों को छीलकर उस पर खार जल का सिंचन भी करते हैं । चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर हैतच्छेत्त (वासीए) खार सिंचणाई च । अर्थ समान है।
विरता चरिस्स हं लूह =मैं संसार से विरक्त (विरत) हो गई हूँ, रूक्ष=संयम का आचरण करूंगी। 'लूह' के बदले कहीं-कहीं पाठान्तर हैं –'मोणं' अर्थ किया गया है-मुनेरयं मौनः संयमः, अर्थात्-मुनि का धर्म- मौन=संयम । 'अहगं साम्मिणी य तुब्भं (समणाणं)'-वृत्तिकार और चूर्णिकार दोनों द्वारा सम्मत पाठ 'तुब्भं' है। अर्थ किया गया है – 'मैं श्राविका हूँ, इस नाते आप श्रमणों की सार्मिणी हूँ।' एवित्थियाहिं अणगारा संवासेण णासमुवयंति' वृत्तिकार के अनुसार-इसी प्रकार स्त्रियों के साथ संवास= परिभोग से अनगार भी (शीघ्र ही) नष्ट (संयम शरीर से भ्रष्ट) हो जाते हैं । चूर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'एवित्थिगासु अणगारासंवासेण णासमुवयंति'- अर्थात् इसी प्रकार अपने, दूसरे के और दोनों के दोषों से अनगार स्त्रियों के साथ संवास से शीघ्र ही चारित्र से विनष्ट हो जाते हैं । णिमंतणेणाऽऽहंसु निमन्त्रणपूर्वक कहती हैं, या कह चुकती हैं णीवारमेवं बुझज्जा=वृत्तिकार के अनुसार-स्त्रियों के द्वारा इस प्रकार के (वस्त्रादि आमन्त्रणरूप) प्रलोभन को साधु नीवार (चावल के दाने) डालकर सूअर आदि को वश में
के समान समझे। चर्णिकारसम्मत पाठान्तर है-'णीयारमंतं बुझज्जा' गाय को नीरा (निकिर= चारादाना) डालकर निमंत्रित किये जाने के समान साधु भी वस्त्रादि के प्रलोभन से निमंत्रित किया