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________________ २५८ सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा हावभाव, अभिनय या अंगविन्यास करती हैं, जिससे कि साधु उस पर मुग्ध हो जाए। कभी वे करुणा उत्पन्न करने वाले मधर आलाप करती हैं-हे प्राणनाथ ! हे करुणामय, हे जीवनाधार, हे प्राणप्रिय हे स्वामी, हे कान्त ! हे हृदयेश्वर ! आप मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं । आप ही मेरे इस तन-मन के स्वामी हैं, आपको देखकर ही मैं जीती हूँ। आपने मुझे बहुत रुलाया, बहुत ही परीक्षा कराई, अब तो हद हो चुकी । अब मेरी बात मानकर मेरी मनोकामना पूर्ण करिये । अब भी आप मुझे नहीं अपनाएँगे तो मैं निराधार हो जाऊँगी, मैं यहीं सिर पछाड़कर मर जाऊँगी। आपको नारी-हत्या का पाप लगेगा। आपने अस्वीकार किया तो मेरी सौगन्ध है आपको ! बस, अब तो आप मुझे अपनी चरणदासी बना लें, मैं हर तरह से आपकी सेवा करूंगी। निश्चिन्त होकर मेरे साथ समागम कीजिए।' इस प्रकार की करुणाजनक एवं विश्वासोत्पादक मीठी-मीठी बातों से अनुनय-विनय करके साधक के हृदय में कामवासना भड़काकर अपने साथ सहवास के लिए उसे मना लेती हैं। कभी वे मीठी चुटकी लेती हैं-'प्रियवर ! अब तो मान जाइए न ! यों कब तक रूठे रहेंगे? मुझे भी तो रूठना आता है !' कभी वे मन्द हास्य करती हैं-'प्राणाधार ! अब तो आपको मैं जाने नहीं दूंगी। मुझे निराधार छोड़कर कहाँ जाएँगे?" कभी वे एकान्त में कामवासना भड़काने वाली बातें कहकर साधु को काम-विह्वल कर देती हैं। वे येन-केनप्रकारेण साध को मोहित एवं वशीभूत करके उसे अपना गुलाम बना लेती हैं, फिर तो वे उसे अपने साथ सहवास के लिए बाध्य कर देती हैं। इसी तथ्य को शास्त्रकार व्यक्त करते हैं- मणबंधहि....... आणवयंति मिन्नकहाहिं। - सातवां रूप-जैसे वन में स्वच्छन्द विचरण करने वाले एकाकी एवं पराक्रमी वनराज सिंह को पकड़ने वाले चतुर शिकारी माँस आदि का लोभ देकर विविध उपायों से बांध लेते हैं, या पिंजरे में बंद कर लेते हैं, फिर उसे तरह-तरह की यातनाएँ देकर पालतू पशु की तरह काबू में कर लेते है । ठीक इसी तरह कामकला चतुर कामिनियाँ मन-वचन-काया को गुप्त (सुरक्षित) रखने वाले कठोर संयमी साधु को भी पूर्वोक्त अनेकविध उपायों से अपने वश में कर लेती हैं, मोहपाश में जकड़ लेती हैं। जब वे इतने कठोर संयमी सूसंवत साधु को भी अपना पथ बदलने को विवश कर सकती हैं तो जिनके मनवचन-काया सुरक्षित नहीं हैं, उनको काबू में करने और डिगाने में क्या देर लगती हैं ? इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- सीहं जहा व "मुच्चए ताहे । ८. आठवाँ रूप-जिस प्रकार बढ़ई रथ के चक्र से बाहर की पुट्ठी को गोलाकार बनाकर धीरे-धीर नमा देता है, उसी तरह साध को अपने वश में करके उससे अभीष्ट (मनचाहे) कार्यों की ओर मोड - लेती हैं। कामकलादक्ष कामिनियों के मोहपाश में एक बार बंध जाने के बाद फिर चाहे जितनी उछलकूद मचाए, उससे उसी तरह नहीं छट सकता, जिस तरह पाश में बंधा हुआ मृग पाश से छटने के लिए ता है, मगर छट नहीं सकता। नारी के मोहपाश का बन्धन कितना जबर्दस्त है, इसे एक कवि के शब्दों में देखिये "बन्धनानि खलु सन्ति बहुनि, प्रेमरज्जकृतबन्धनमन्यत् । दारुभेदनिपुणोऽपि षडचिनिष्क्रियो भवति पंकजकोषे ॥" .. -संसार में बहुत से बन्धन हैं, परन्तु इन सब में प्रेम (मोह) रूपी रस्सी का बन्धन निराला ही
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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