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________________ प्रथम उद्देशक । गाथा २४७ से २७७ २५७ - इसके अतिरिक्त गुप्त नाम के द्वारा या गूढार्थक मधुर वार्तालाप करके अपने जाल में साधु को फंसा लेती हैं । इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं- "छन्नपए।' ३. तृतीय रूप-प्रायः कामुक रमणियां साधु को अप कामजाल में फंसाने के अनेक तरीके जानती हैं, जिसमें भोलेभाले साधक वेदमोहनीय कर्मोदयवश फंसकर उनमें आसक्त हो जाते हैं । शास्त्रकार यही बात कहते हैं-उवायं पि ताउ..."लिस्संति भिक्खुणो । कामुक स्त्रियों द्वारा साधु को जाल में फंसाये जाने के कछ तरीके सत्रगाथा २४६ में बताये हैं-पासे भिसं.........."कक्खमणम्वज्जे । अर्थात-(१) वे साध के पास अत्यन्त सटकर कोई गुप्त बात कहने के बहाने बैठ जाती है, या बहुत अधिक देर तक बैठती हैं, (२) बारबार कामोत्तेजक वस्त्रों को ढीला होने का बहाना बना कर पहनती हैं, (३) शरीर के अधोभाग (जांघ, नाभि, टाँग, नितम्ब आदि) दिखाती हैं, (४) बाँहें ऊंची करके काँख को दिखाती हई सामने से जाती हैं, ताकि साधु उसे देखकर काम-विह्वल हो जाए। इसके अतिरिक्त हाथ से इशारे करना, आँखें मटकाना, स्तन दिखाना, कटाक्ष करना आदि तो कामुक कामिनियां के कामजाल में फंसाने के सामान्य सूत्र हैं। ४. चौथा रूप-कभी-कभी ऐसी चालाक नारियाँ कामजाल में फंसाने के लिए साधू को अत्यन्त भावभक्तिपूर्वक किसी को दर्शन देने आदि के बहाने से पधारने की प्रार्थना करती हैं, या घर पर एकान्त कमरे में अनुनय-विनय करके ले जाती हैं । जब अविवेकी साधु उसकी प्रार्थना या मनुहार पर उसके घर पर या एकान्त में चला जाता है, तब वे साधु को शीलभ्रष्ट करने हेतु कहती हैं-जरा इस पलंग या गद्दे पर या शय्या पर विराजिए। इसमें कोई सजीव पदार्थ नहीं है, प्रासुक है। अच्छा, और कुछ नहीं तो, कम से कम इस आराम-कुर्सी पर तो बैठ जाइए। इतनी दूर से पधारे हैं तो जरा इस गलीचे पर बैठकर सुस्ता लीजिए। भोला साधु स्त्री के वाग्जाल में फँस जाता है । यही बात शास्त्रकार कहते है-सयणासणेण जोग्गेण ......"णिमंतंति । ५. पांच रूप-कई कामलोलुप कामिनियाँ साधु को अपने कामजाल में फंसाने के लिए पहले साधु को इशारा करती हैं, या वचन देती हैं कि 'मैं अमुक समय में आपके पास आऊँगी, आप भी वहाँ तैयार रहना।' इस प्रकार का आमंत्रण देकर फिर वे साधु को अनेक विश्वसनीय वचनों से विश्वास दिलाती हैं, ताकि वह संकोच छोड़ दे। वे साधु का भय एवं संकोच मिटाने के लिए झूठमूठ कहती हैं"मैं अपने पति से पूछकर, अपने पति को भोजन कराकर, उनके पैर धोकर तथा उन्हें सुलाकर आपके पास आई हूँ। मेरा यह तन, मन, धन, आभूषण आदि सब आपका है। आप शरीर का मनचाहा उपभोग कीजिए, मैं तो आपके चरणों की दासी हूँ। यों विविध वाग्जाल बिछाकर साधु को विश्वस्त करके रमणियाँ अपने साथ रमण करने के लिए प्रार्थना करती हैं । शास्त्रकार कहते हैं-आमंतिय उस्सविया" ....""आयसा निमंतंति । ६. छठा रूप-कई चतुर ललनाएँ साधु को अपने साथ समागम के हेतु मनाने के लिए मन को काम-पाश में बाँध देने वाले विविध आकर्षणकारी दृश्यों, संगीतों, रसों, सुगन्धियों और गुदगुदाने वाले कोमल स्पर्शों से लुभाकर अपनी ओर खींचती हैं। इसके लिए वे मधुर-मधुर वचन बोलती हैं, आकर्षक शब्दों से सम्बोधित करती हैं, कभी साधु की ओर स्नेहपूर्ण दृष्टि से कटाक्ष फेंककर अथवा आँखें या मुंह मटकाकर देखती हैं, कभी अपने स्तन, नाभि, कमर, जंघा आदि अंगों को दिखाती हैं, कभी मनोहर
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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