________________
२५६
सूत्रकृतांग-चतुर्थ अध्ययन-स्त्रीपरिज्ञा
- स्त्रीसंगरूप उपसर्ग एक : रूप अनेक-वास्तव में साधू मन में जब कामवासना के मलिन विचारों को धुलाता रहता है, तब वह किसी भी स्त्री के हावभाव, मधुर आलाप, नम्र वचन, चाल-ढाल या अंगोपांग को देखकर उसके प्रति कामासक्त हो सकता है। फिर भी साधु को भूमिका इससे काफी ऊंची हैं और शास्त्रकार इस अध्ययन के प्रारम्भ में सर्वप्रथम उसकी उच्च भूमिका का स्मरण कराते हैं-'जब कोई व्यक्ति घर-बार, माता-पिता आदि स्वजनों, कुटुम्बीजनों, धन-सम्पत्ति तथा समस्त सांसारिक वस्तुओं से पहले का मोहसम्बन्ध छोड़कर एकाकी बन मुनिधर्म में दीक्षित होता है, तब यही प्रतिज्ञा करता है कि मैं आज से सम्यग्दर्शन सहित सम्यग्ज्ञानपूर्वक सम्यक्चारित्र (पंचमहाव्रत पंचसमिति, त्रिगुप्ति आदि) में अथवा स्व-(आत्म) हित में विचरण करूंगा। तब से वह समस्त प्रकार के मैथून से मन-वचन-काया से विरत हो जाता है और विविक्त (स्त्री-पशु-नपुसकसंसर्गरहित) स्थान की गवेषणा करता है, अथवा विविक्त-पवित्र साधूओं के मार्ग के अन्वेषण में तत्पर रहता है, या कर्मों से विविक्त-रहित मोक्ष का अभिलाषी रहता है। फिर भी उक्त ब्रह्मचर्यपरायण साधु के समक्ष अत्यन्त सूक्ष्म रूप में कई विवेकमूढ़ नारियाँ आकर उसे नाना रूप से शीलभ्रष्ट कर सकती हैं। साधु को सहसा उस स्त्रीजन्य सूक्ष्म उपसर्ग का पता ही नहीं लगता, वह ठगा जाता है, उक्त उपसर्ग के प्रवाह में बह जाता है। अतः शास्त्रकार श्रमण को सावधान करने और उस उपसर्ग में फँसने से बचाने की दृष्टि से स्त्रीजन्य उपसर्ग के विभिन्न रूपों को यहाँ प्रस्तुत करते हैं।
१. प्रथम रूप-विवेकमूढ़ स्त्रियां साधु के पास आकर बैठ जाती हैं, और इधर-उधर के पुराने गार्हस्थ्य या दाम्पत्य संस्मरण याद दिलाकर साधक को शीलभ्रष्ट करने का प्रयत्न करती हैं। जैसे नाना प्रकार से छल करने में निपुण, कामवासना पैदा करने में चतुर, मागधवेश्या आदि नारियों ने कुलबालुक जैसे तपस्वी रत्नों को शीलभ्रष्ट कर दिया था। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-सुहमेण तं परिक्कम्म।" अर्थात् अन्य कामुक स्त्रियाँ भाई, पुत्र, स्वजन या अन्य सांसारिक रिश्ते के बहाने से साधु के पास आकर धीरे-धीरे उससे अनुचित अनैतिक सम्बन्ध कर लेती हैं। यह स्त्रीजन्य उपसर्ग का प्रथम रूप है।
___२. दूसरा रूप-कई कामुक रमणियाँ साधु को शीलभ्रष्ट करने हेतु गूढ़ अर्थ वाले शब्दों का प्रयोग करके अपने मनोभाव जताकर फंसा लेती हैं। वे इसी प्रकार का द्वयर्थक श्लोक, कविता, पहेली, भजन या गायन साधू के पास आकर सुनाती हैं। और उसी के माध्यम से अपना कामुक मनोभाव प्रकट कर देती हैं। अपरिपक्व साधक उसके मोहजाल में फँसकर अपने संयम से हाथ धो बैठता है।३
२ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक १०४ पर से । ३ वृत्तिकार इसी प्रकार का एक ग ढार्थक श्लोक उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं
'काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शर्वरीसु।
मिथ्या न मापऽहं विशालनेत्रा ते प्रत्यया ये प्रथमाक्षरेषु ॥" इस श्लोक के चारों चरणों के प्रथम अक्षरों की योजना करने से 'कामेमि ते' (मैं तुम्हें चाहती हूँ) यह वाक्य बन जाता है।