SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० प्रयम उद्देशक : गाया २४७ से २७७ है । कठोर काष्ठ को भेदन करने में निपुण भौंरा कमल सौरभ के प्रेम (मोह) के वशीभूत होकरउ सके कोष में ही निष्क्रिय होकर स्वयं बंद हो जाता है। इसी बात को शास्त्रकार कहते हैं- 'अह तत्य पुणो नमयंती..........ण मुच्चति ताहे ।' ____६. नौवाँ रूप-स्त्रियों के मायावी स्वभाव का वर्णन करते हुए शास्त्रकार स्त्रीजन्य उपसर्ग को समझने के लिए कहते हैं-'अन्नं मणेण........"कम्मुणा अन्नं ।' इसका आशय यह है कि स्त्रियाँ पाताल के उदर के समान अत्यन्त गम्भीर होती हैं। उन्हें समझना अत्यन्त कठिन है। वे मन से कुछ सोचती हैं, वचन से कुछ और ही बोलती हैं और शरीर से चेष्टाएँ दूसरी ही करती हैं, उनका कहना, सोचना और करना अलग-अलग होता है।' १०. दसवाँ रूप-कई बार साधू को अपने कामजाल में फंसाने के लिए कोई नवयौवना कामिनी आकर्षक वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर साधु के पास आकर कहती है-'गुरुदेव ! आप तो संसार-सागर में डूबते जीवों का उद्धार करने और पार लगाने वाले हैं। मुझे उबारिये । मैं अब इस गृहपाश (बन्धन) से विरक्त हो गई हूँ। मेरा पति मेरे अनुकूल में नहीं है, अथवा उसने मुझे छोड़ दिया है । अतः अब मैं संयम या मुनिधर्म का आचरण करूंगी। आप मुझे धर्मोपदेश दीजिए, ताकि मुझे इस दुःख का भाजन न बनना पड़े।' इसी तथ्य को शास्त्रकार २७१वीं सूत्रगाथा में कहते हैं-जुवती समण........"णे भयंतारो। ११. ग्यारहवाँ रूप-मायाविनी नारी साधु को फंसाने के लिए श्राविका के रूप में उसके पास आती है और कहती है-मैं आपकी श्राविका हूँ, साधुओं की साधर्मिणी हूँ। मुझसे आप किसी बात का संकोच न करिये । जिस चीज की आवश्यकता हो मुझे कहिए । यों वह बारबार साधु के सम्पर्क में आती है, घन्टों उसके पास बैठती है और चिकनीचपडी बातें बनाकर वह श्राविकारूपधारी मायाविनी नारी कलबालुक की तरह साधू को धर्मभ्रष्ट कर देती है। इसी बात को शास्त्रकार (२७२वीं सुत्रगाथा 1 को शास्त्रकार (२७२वीं सूत्रगाथा में) अभिव्यक्त करते हैं-अदु साविया....."साधम्मिणी य समणाणं । १२. बारहवाँ रूप-कई बार व्यभिचारिणी स्त्रियां भद्र एवं संयमी साधु को अतिभक्ति का नाटक करके फंसा लेती हैं। कई कामुक नारियाँ सुन्दर, सुडौल, स्वस्थ एवं सुरूप आत्मज्ञानी अनगार को सभ्य १. वृत्तिकार ने दुर्गाह्य स्त्री स्वभाव को समझाने के लिए एक कथा दी है-एक युवक था दत्तावैशिक । उसे अपने कामजाल में फंसाने के लिए एक वेश्या ने अनेक उपाय किये । परन्तु दत्तावैशिक ने मन से भी उसकी कामना नहीं की। यह देख वेश्या ने एक नया पासा फेंका। उसने दयनीय चेहरा बनाकर रोते-रोते युवक से कहा-'मेरा दुर्भाग्य है कि आपने इतनी प्रार्थना करने के बावजूद भी मुझे छिटका दिया। अब मुझे इस संसार में जीकर क्या . करना है ? मैं अब शीघ्र ही अग्नि प्रवेश करके जल मरूंगी।' यह सुनकर दत्तावैशिक ने कहा-'स्त्रियाँ माया करके अग्निप्रवेश भी कर सकती हैं।' इस पर वेश्या ने सुरंग के पूर्वद्वार के पास लकड़ियाँ इकट्ठी करके उन्हें जला दिया और सुरंगमार्ग से अपने घर चली गई । दत्तावैशिक ने सुना तो कहा-'स्त्रियों के लिए ऐसी माया करना बाएँ हाथ का खेल है।' वह यों कह ही रहा था कि कुछ धूर्तों ने उसे विश्वास दिलाने के लिए उठाकर चिता मैं फेंक दिया, फिर भी दत्तावैशिक ने विश्वास नहीं किया। इस प्रकार के स्त्रीसंग उपसर्ग को भलीभाँति समझ लेना चाहिए।
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy