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________________ २२२ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा पाठान्तर और व्याख्या-परिभासेज्जा=कहे, बतलाए। चूर्णिकार 'पडिभासेज्ज' पाठान्तर मानते हैं, जिसका अर्थ होता है-प्रतिवाद करे प्रत्याक्षेप करे। उज्जया= उज्जात यानी उज्जड़ या अक्खड़ लोग, वृत्तिकार सम्मत पाठान्तर है-उझिया अर्थ किया है-सद्विवेकशून्याः- सद्विवेक से शून्य। किसीकिसी प्रति में 'उज्जुया', 'उज्जुत्ता' पाठान्तर हैं, जिनका अर्थ होता है-लड़ाई करने को उद्यत अथवा अपनी जिद्द पर अड़े हुए । 'ण एस णियए मग्गे'=वृत्तिकार के अनुसार-आपके द्वारा स्वीकृत यह मार्ग कि “साधुओं को निश्चित न होने के कारण परस्पर उपकार्य-उपकारक भाव नहीं होता" नियत=निश्चित या यूक्ति संगत नहीं है। चूर्णिकार 'ण एस णितिए मग्गे' पाठान्तर मानकर दो अर्थ प्रस्तुत करते हैं'न एष भगवतां नीतिको मार्गः, नितिको नाम नित्यः । भगवान् की (अनेकान्तमयी) नीति के अनुरूप यह मार्ग नहीं है, अथवा नितिक का अर्थ 'नित्य' है, यह मार्ग नित्य (उत्सर्ग) मार्ग नहीं है, अर्थात् अपवाद मार्ग है । 'अग्गे वेणुव्व करिसिता' =वृत्तिकार के अनुसार-'अग्ने वेणुवत् वंशवत् कर्षिता दुर्बलेत्यर्थः ।' अर्थात् बांस के अग्रभाग की तरह आपका कथन दुर्बल है, वजनदार नहीं। चूर्णिकार के अनुसार पाठान्तर है'अग्गै बेलुव्व करिसिति=बिल्यो हि मूले स्थिरः अनेकर्षित: । अर्थात् बिल्व की तरह मूल में स्थिर और अग्रभाग में दुर्बल वायं णिराकिच्चा-वृत्तिकार के अनुसार--'सम्यग्हेतु दृष्टान्तयों वादो-जल्पस्तं परित्यज्य' अर्थात् सम्यक् हेतु, दृष्टान्त आदि से युक्त जो वाद-जल्प है, उसका परित्याग करके । चूर्णिकार सम्मत एक पाठान्तर है-वादं निरे किच्चा-अर्थ इस प्रकार है-निरं णाम पृष्ठतः वादं निरेकृत्वा अर्थ है वाद को पीठ करके यानी पीछे धकेलकर ।" वृत्तिकार ने कहा है-अनेक असत्वादियों की अपेक्षा एक सत्यवादी ज्ञानी का कथन प्रमाणभूत होता है । 'अचयंता जवित्तए' =स्वपक्ष में अपने आपको संस्थापित करने में असमर्थ । पाठान्तर है-"अचयंता जहित्तते" अर्थ होता है-अपने पक्ष को छोड़ने में असमर्थ । अगिलाए समाहिते= वृत्तिकार के अनुसार 'अग्लानतया समाहितः समाधि प्राप्तः ।' अर्थात् स्वयं अग्लान भाव को प्राप्त एवं समाधि युक्त होकर। चूर्णिकार 'अगिलाणेण समाधिए' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं-अगिलाणेण-अनादितेन अव्यथि तेन समाधिएत्ति समाविहेतोः ।' अर्थात-समाधि के हेतू अग्लान यानी अव्यथित होते (मन में किसी प्रकार का दुःख या पीड़ा महसूस न करते हुए)। टंकणा इव पव्वयं-वृत्तिकार के अनुसार पहाड़ में रहने वाली म्लेच्छों की एक जाति विशेष टंकण १५ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० ४६३ से ४६७ तक का सारांश (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पृ० ६२-६३ १६ एरंडकट्ठरासी जहा य गोसीसचन्दनपलस्स । मोल्ले न होज्ज सरिसो कित्तियमेत्तो गणिज्जतो ॥१॥ तह वि गणणातिरेगो जह रासी सो न चन्दनसरिच्छो । तह निविण्णाणमहाजणो वि सोज्झइ विसंवयति ॥२॥ एक्को सचक्खुगो जह अंधलयाणं सरहिं बहुएहिं । होइ वरं दट्ठव्वो गहु ते बहु गा अपेच्छंता ॥३॥ एवं बहुगा वि मूढा ण पमाणं जे गई ण याणंति । संसारगमणगुविलं णिउणस्स य बंधमोक्खस्स ॥४॥ -सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति में उद्धत पनांक ६३
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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