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तृतीय उद्द शक : गाथा २२४
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कहलाती है । सूत्रकृतांग अंग्रेजी अनुवाद के टिप्पण में टंकण जाति को मध्यप्रदेश के ईशानकोण में रहने वा पर्वतीय जाति बतलाई है। जैसे दुर्जेय टंकण जाति के भील किसी प्रबल शक्तिशाली पुरुष की सेना द्वारा हराकर खदेड़ दिये जाते हैं, तब वे आखिर पर्वत का ही आश्रय लेते हैं, वैसे ही विवाद में परास्त लोग और कोई उपाय न देखकर आक्रोश का ही सहारा लेते हैं ।"
उपसर्ग विजय का निर्देश
२२४
संखाय पेसलं धम्मं दिट्ठिमं परिनिवुडे ।
उवसग्गे नियामित्ता आमोक्खाए परिव्वज्जासि ॥ २१ ॥ त्ति बेमि ।
२२४. सम्यग् दृष्टिसम्पन्न ( पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता - द्रष्टा ), प्रशान्त ( रागद्वेष र हितकषायोपशान्तियुक्त) मुनि ( इस सर्वज्ञप्रणीत श्रुत चारित्र रूप ) उत्तम धर्म को जानकर उपसर्गों पर नियन्त्रण ( उन्हें वश में) करता हुआ मोक्ष प्राप्ति - पर्यन्त संयम में पराक्रम करे । - ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन - मोक्ष प्राप्ति पर्यन्त उपसर्ग- विजय करे - तृतीय उद्देशक के अन्त में उपसर्ग विजय के निर्देश के सन्दर्भ में तीन तथ्यों को अभिव्यक्त किया है - ( १ ) उत्तम धर्म को जानकर, (२) दृष्टिमान् एवं उपशान्त मुनि (३) मोक्ष प्राप्त होने तक संयमानुष्ठान में उद्यम करे । संक्षेप में उपसर्ग विजय, क्या करके, कौन और कब तक करता रहे ? इन तीन तथ्यों का उद्घाटन किया गया है । १६
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पाठान्तर और व्याख्या - पेसलं सुन्दर - अहिंसादि में प्रवृत्ति होने के कारण प्राणियों की प्रीति का कारण । उवसग्गो नियामित्ता वृत्तिकार के अनुसार - "उपसर्गान् अनुकूल-प्रतिकूलान् नियम्य संयम्य सोढा, नोपसर्गैरुपसर्गितोऽसमंजसं विदध्यात्।” अर्थात् अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्गों पर नियमन - संयम करके सहन ( वश में) करे। उपसर्गों से पीड़ित होने पर असमंजस ( उलझन ) में न पड़े। चूर्णिकार 'उवसग्गे अधियासतो' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं उपसर्गों को सहन करता हुआ । 'आमोक्खाए' चूर्णिकार के अनुसार - मोक्षापरिसमाप्ते मोक्षो द्विविधः भवमोक्षो सब्वकम्ममोक्खो य, उभयहेतोरपि आमोक्षाय परिव्रजे - अर्थात् मोक्ष की परिसमाप्ति - पूर्णता तक ... मोक्ष दो प्रकार का है - भवमोक्ष जन्ममरण रूप संसार से मुक्ति, सर्व कर्ममोक्ष - समस्त कर्मक्षय रूप मोक्ष । इन दोनों मोक्षों की प्राप्ति के हेतु संयम में पराक्रम करे । वृत्तिकार 'आमोक्खाय' पाठान्तर मानकर अर्थ करते हैं- "आमोक्षाय अशेषकर्मक्षयप्राप्ति यावत् - अर्थात् मोक्ष प्राप्ति समस्त कर्मक्षय प्राप्ति तक । १
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१७ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ९४
(ख) “This hill-tribe lived some where in the north-east of Madhyapradesa, see Peterburg Dictionary. S. V." -Sacred Books of the East Vol-XIV, p. 268
(ग) सूयगडंग चूर्णि ( मूलपाठ टिप्पण) पृ० ३५ से ४० तक १८ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति भाषानुवाद सहित भा० २, पृ० ७०
१६ (क) सूयगडंग चूर्णि ( मू० पा० टिप्पण) पृ० ४० (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६४