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तृतीय उद्देशक : गाथा २१४ से २२३
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को प्रेरणा देते हैं, तथा इस कार्य का अनुमोदन करके रुग्ण साधु का उपकार करना स्वीकार भी करते है, अतः आप एक ओर रुग्ण साधु के प्रति उपकार भी करते हैं, दूसरी ओर इस उपकार का विरोध भी करते हैं । यह 'वदतो व्याघात' सा है । ३
रुग्ण साधु की सेवा प्रसन्नचित्त साधु का धर्म प्रतिवादी द्वारा किये गए आक्षेप का निवारण करने के पश्चात् शास्त्रकार २२३वीं सूत्रगाथा में स्वपक्ष की स्थापना के रूप में स्वस्थ साधु द्वारा ग्लान ( रुग्ण, वृद्ध, अशक्त आदि) साधु की सेवा को अनिवार्य धर्म बताते हुए कहते हैं
"इमं च धम्म''''कुज्जा भिक्खु गिलाणस्स अगिलाए समाहिते - इसका आशय यह है कि साधु के लिए इस सेवाधर्म का प्रतिपादन मैं ( सुधर्मास्वामी) ही नहीं कर रहा हूँ, अपितु काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर ने केवलज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् देव, मनुष्य आदि की परिषद् में किया था ।
लान साधु की सेवा दूसरा साधु किस प्रकार करे ? — इसके लिए यहाँ दो विशेषण अंकित किये हैं(१) अगिला ( २ ) समाहिते । अर्थात् - ग्लानि रहित एवं समाहित – समाधियुक्त - प्रसन्नचित्त होकर । इन - दो विशेषताओं से युक्त होकर रुग्ण साधु की सेवा करेगा, तभी वह धर्म होगा - संवर- निर्जरा का कारण होगा, कदाचित् पुण्यबन्ध हो तो शुभगति का कारण होगा ।
ग्लानिरहित एवं समाधि युक्त होकर सेवा करने के विधान के पीछे एक अन्य आशय भी वृत्तिकार अभिव्यक्त करते हैं- यदि साधु स्वयं समाधियुक्त होकर अग्लानभाव से रुग्ण साधु की सेवा नहीं करेगा या सेवा से जी चुराएगा; तो भविष्य में कदाचित् वह भी किसी समय अशुभ कर्मोदयवश रुग्ण, अस्वस्थ या अशक्त हो सकता है, उस समय उसकी सेवा से दूसरे साधु कतराएँगे, तब उक्त साधु के मन में असमाधिभाव उत्पन्न होगा । अतः स्वयं को तथा रुग्ण साधु को जिस प्रकार से समाधि उत्पन्न हो उस प्रकार से आहारादि लाकर देना व उसकी सेवा करना स्वस्थ साधु का मुख्य धर्म है । १४
परास्तवादियों के साथ विवाद के दौरान मतवादियों के मिथ्या आक्षेपों का उत्तर देते वैसी स्थिति में मुनि का धर्म क्या है ? यह संक्षेप में सम्भावनाएँ व्यक्त की हैं - (१) परास्तवादी वाद मानने पर अड़ जाएँ, (२) रागद्वेष एवं मिथ्यात्व से ग्रस्त होकर प्रतिवाद आक्रोश ( गाली-गलौज, मारपीट आदि) का आश्रय लें, अथवा (३) विवाद के दौरान कठोरता, अपशब्द-व्यंग्यवचन आदि के प्रयोग, या बाध्य) करने की नीति को देखकर कोई अन्यतीर्थी धर्मजिज्ञासु विरोधी न बन जाए ।
मुनि का धर्म - यहाँ सूत्रगाथा २२० से २२२ तक में अन्यसमय कैसी विकट परिस्थितियों की सम्भावना है, और निर्देश किया गया है । यहाँ तीन परिस्थितियों की को छोड़कर धृष्टतापूर्वक अपने पक्ष को ही यथार्थं
वृत्तिकार का आशय यह प्रतीत होता है कि ऐसी परिस्थिति में मुनि को इस प्रकार मनः समाधान से युक्त एवं कषायोत्तेजना से रहित होकर ऐसे हठाग्रहियों से विवाद न करना ही श्रेयस्कर है ।
१३ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६१ से १४
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४५६ से ४६२
१४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पृ० ६३ के आधार पर
(ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४६८ के आधार पर