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________________ २२. सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा न्याय से हम लोग आपके दोषों को अधिक कुरेदना ठीक नहीं समझते । इससे आप में राग-द्वेष वृद्धिरूप दोष उत्पन्न होने की सम्भावना है। __ण एस णियए मग्गे'-इसका आशय यह है कि आक्षेपकर्ताओं के प्रति प्रत्याक्षेप करते हुए सुसाधु कहते हैं आपके द्वारा अपनाया हुआ सुसाधुओं की निन्दा करने का यह मार्ग या रवैया भगवान् के द्वारा नियत-निश्चित या युक्तिसंगत नहीं है, अथवा चूणिकार सम्मत 'णितिए' पाठान्तर के अनुसार "यह मार्ग भगवान् की नीति के अनुकूल (नैतिक) नहीं है।" तत्तेण अणुसिढ़ाते-जो साधक हेयोपादेय ज्ञाता है, तथा रोषद्वष रहित होकर सत्य बातें कहने के लिए कृतप्रतिज्ञ है, वह उन गोशालक मतानुसारी आजीवक आदि श्रमणों से तू-तू मैं-मैं, वाक्कलह, व्यर्थ विवाद या झगड़ा करने की अपेक्षा वस्तु तत्त्व की दृष्टि से, जिनेन्द्र के अभिप्राय के अनुसार यथार्थ परमार्थ प्ररूपणा के द्वारा बहुत ही मधुर शब्दों में नम्रतापूर्वक सच्ची और साफ-साफ बातें समझा दे, उन्हें हितकर और वास्तविक बातों की शिक्षा दें। यही इस पंक्ति का आशय है। असमिक्खा वई किती-'आपका यह कथन अविचारपूर्वक है कि जो भिक्षु रोगी साधु को आहार लाकर देते हैं, वे गृहस्थ के समान हैं। तथा आप जो कार्य, आचरण या व्यवहार करते हैं, वह भी विवेक विचार शून्य हैं। एरिसा सा वई""न तु भिक्खूणं- इस गाथा का निष्कर्ष यह है कि “साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेयस्कर है, मगर साधु के द्वारा लाया हआ नहीं," आपकी इस बात में भी बांस के अग्रभाग की तरह कोई दम नहीं है, क्योंकि एक तो इस कथन के पीछे कोई प्रमाण, कोई तर्कसंगत तथ्य या कोई हेतु सहित युक्ति नहीं है। वीतराग महर्षियों द्वारा चलाई हुई प्राचीन परम्परा से भी यह संगत नहीं है। आपका यह कथन इसलिए निःसार है कि गृहस्थों के द्वारा बना कर लाये हुए आहार में षट्कायिक जीवों का घात स्पष्ट है, साथ ही वह आहार आधाकर्म, औद्देशिक आदि दोषों से युक्त अशुद्ध होता है, जबकि साधुओं के द्वारा अनेक घरों से गवेषणा करके लाया हुआ भुक्त-शिष्ट र उद्गमादि दोषों से रहित, साधु के लिए आरम्भ-समारम्भ से वर्जित एवं अमृत भोजन होता है। धम्मपण्णवणा जा सा""पुष्वमासि पकप्पियं-सर्वज्ञों की एक धर्मदेशना है-'साधुओं को दान देकर उपकार करना चाहिए' यह गृहस्थों की शुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, क्योंकि साधु तो अपने ही तप-संयम का आचरण करके शुद्ध होते हैं, यह वीतराग सर्वज्ञ पुरुषों की धर्म देशना का गलत अर्थ लगाना है। इसी गलत अर्थ को लेकर आक्षेपकर्तागण यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि रोगादि अवस्था में साधु को आहारादि लाकर देने का (साधु के प्रति) उपकार गृहस्थ को ही करना चाहिए, साधुओं को नहीं, परन्तु पूर्वकालीन सर्वज्ञों की धर्म देशना ऐसी नहीं रही है, आप (आक्षेपकर्ताओं) अपनी मिथ्या दृष्टि के कारण सर्वज्ञोपदिष्ट कथन का विपरीत अर्थ करते हैं । सर्वज्ञपुरुष ऐसी तुच्छ या विपरीत बात की प्ररूपणा नहीं करते अतः रोगी साधु की वैयावृत्य साधु को नहीं करनी चाहिए, इत्यादि आजीवकादि आक्षेपकों का आक्षेप शास्त्र-विरुद्ध, युक्ति-विरुद्ध एवं अयथार्थ है। वस्तु स्थिति यह है कि आप (आजीवकादि) लोग रुग्ण साधु की वैयावृत्य करने के लिए गृहस्थ
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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