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________________ तृतीय उद्देशक : गाथा २१४ से २२३ २१६ का उपभोग करते हैं, (५) औद्दे शिक आदि दोषों से बने आहार का सेवन करते हैं । ( ६ ) आप लोग तीव्र कषाय या कर्मबन्ध से लिप्त हैं, (७) सद्विवेक से शून्य हैं, (८) शुभ अध्यवसाय (समाधि) से रहित हैं, (६) जिस प्रकार घाव के अधिक खुजलाने से विकारवृद्धि होती है, इसी तरह मिथ्या - आक्षेपात्मक चर्चा भी बार-बार रागद्वेष युक्त होकर छेड़ने से कोई लाभ नहीं, वह कषायादि वर्द्धक ही है । (१०) निन्दा आदि करने का मार्ग भगवान् की नीति के अनुकूल या युक्तिसंगत नहीं है । (११) आपके आक्षेपात्मक वचन बिना सोचे विचारे कहे गए हैं, (१२) आपके कार्य भी विवेक विचार शून्य हैं, (१३) “साधु को गृहस्थ के द्वारा लाया हुआ आहार करना श्रेयस्कर है किन्तु साधु के द्वारा लाया हुआ नहीं," यह कथन बांस के अग्रभाग की तरह दमदार नहीं है, (१४) साधुओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए यह धर्मदेशना गृहस्थों को ही शुद्धि करने वाली है साधुओं को नहीं, इस दृष्टि से पूर्वकालिक सर्वज्ञों ने प्ररूपणा नहीं की थी । " दुपक्खं चेव सेवहा - वृत्तिकार ने 'दुपक्खं' आदि वाक्य की व्याख्या चार प्रकार से की है - ( १ ) दुष्पक्ष = आप मिथ्या, असत् पक्ष का आश्रय लेते हैं (२) द्विपक्ष = राग और द्वेष रूप दो पक्षों का सेवन में करते हैं। क्योंकि आप अपने दोषयुक्त पक्ष का भी समर्थन करते हैं, इस कारण आपका अपने पक्ष राग है, तथा हमारा सिद्धान्त दोष रहित है उसे आप दूषित बतलाते हैं, इसलिए उस पर आपका द्वेष हैं । (३) आप लोग द्विपक्षों का आश्रय लेते हैं । जैसे - आप लोग सचित्त बीज, कच्चा पानी और उद्दिष्ट आहार आदि का सेवन करने के कारण गृहस्थ हैं और साधु का वेष रखने के कारण साधु हैं । ( ४ ) अथवा आप दो पक्षों का सेवन करते हैं । जैसे - स्वयं असद् अनुष्ठान करते हैं और सद् अनुष्ठान करने वाले दूसरों की निन्दा करते हैं । तात्पर्य यह है कि आपने जो साधु वर्ग पर सरागस्थ और परस्पर आसक्त होने का आक्षेप लगाया, वह गलत है, दुष्पक्ष है - मिथ्यापूर्वपक्ष से युक्त है । 1 लित्ता तिब्बाभितावेणं' असमाहिया - इस गाथा में तीन प्रत्याक्षेप आक्षेपकर्ताओं पर लगाए हैं - १. अभिता से लिप्त, २ . सद्विवेक से विहीन, तथा ३. समाधि ( शुभ अध्यवसाय) से रहित । ये तीनों प्रत्याक्षेप इस प्रकार प्रमाणित होते हैं - ( १ ) षट्कायिक जीवों का उपमर्दन करके जो आहार उनके निमित्त तैयार किया जाता है, उसका सेवन करने से, झूठी बात को भी दृढ़तापूर्वक पूर्वाग्रहवश पकड़ने से; मिथ्यादृष्टित्व के स्वीकार से एवं सुविहित साधुओं की निन्दा करने के कारण वे लोग तीव्र कषाय या तीव्र कर्मबन्धन के अभिताप से लिप्त हैं । सुविवेक से विहीन इसलिए हैं कि भिक्षापात्र न रखकर किसी एक गृहस्थ के घर में भोजन करने के कारण तथा रुग्ण सांधु के लिए गृहस्थ से बनवाकर भोजन मँगाने कारण वे उद्दिष्ट आदि दोष युक्त आहार करते हैं । तथा शुभ अध्यवसाय से रहित इसलिए हैं कि वे उत्तम साधुओं से द्व ेष करते हैं, उनको झूठमूठ बदनाम करते हैं । नातिकंडुइतं सेयं अरुयस्सावरज्झती - इस प्रत्याक्षेप वाक्य में सुसाधु द्वारा सामान्य नीति की प्रेरणा है । इसका अर्थ है - घाव को अधिक खुजलाना अच्छा नहीं होता उससे विकार उत्पन्न होता है, इस १२ सूत्नकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा० २ पृ० ५७ से ६३ तक का सार
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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