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________________ २१८ सूत्रकृतांग - तृतीय अध्ययन - उपसर्गपरिज्ञा यह है कि वह आक्षेपकों के साथ विवाद करते समय उखड़े नहीं, झल्लाए नहीं, विक्षुब्ध न हो । अथवा वह आत्म-समाधान पर दृढ़ रहे, जिस प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त आदि से स्वपक्ष सिद्धि होती हो, उसी का प्रतिपादन करे । बहुगुणप्पगप्पाइ कुज्जा – प्रतिवादकर्ता साधु 'बहुगुणप्रकल्पक' होना चाहिए। जिस विवाद से प्रतिपक्षी के हृदय में स्नेह, सद्भावना, आत्मीयता, धर्म के प्रति आकर्षण, साधु संस्था के प्रति श्रद्धा, वीतराग देवों के प्रति बहुमान आदि अनेक गुण निष्पन्न होते हों, उसे बहुगुण प्रकल्प कहते हैं । वृत्तिकार की दृष्टि से बहुगुणप्रकल्प का अर्थ है - (१) जिन बातों से स्वपक्ष सिद्धि और परपक्ष के दोषों की अभिव्यक्ति हो अथवा (२) जिन अनुष्ठानों से माध्यस्थ्यभाव आदि प्रकट हो, ऐसे प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन आदि का प्रयोग करे या वचन प्रयोग करे । इस दृष्टि से प्रतिवादकर्ता साधु उसी प्रकार का विवाद करता हो, जो बहुगुणप्रकल्प हो । प्रशान्तात्मा मुनि को ऐसा प्रतीत हो कि प्रतिपक्षी विवाद में पराजित होता जा रहा है, और इस विवाद से आत्मीयता, मैत्री, स्नेह - सद्भावना, देव-गुरु-धर्म के प्रति श्रद्धा आदि गुण बढ़ने के बजाय रोष, द्व ेष, ईर्ष्या, घृणा, प्रतिक्रिया, अश्रद्धा आदि दोषों के बढ़ने की सम्भावना है, तब वह उस विवाद को वहीं स्थगित कर दे । यह गुण प्रतिवादकर्ता साधु में अवश्य होना चाहिए। प्रतिपक्षी को कायल, अश्रद्धालु एवं हैरान करने तथा उसे बार-बार चिढ़ाने से उपर्युक्त बहुगुण नष्ट होने की सम्भावना है । जेणऽण्णो ण विरुज्झेज्जा तेण तं तं समायरे - प्रतिवादकर्ता में यह खास गुण होना चाहिए कि वह प्रतिपक्षी के प्रति ऐसा वचन न बोले, न ही ऐसा व्यवहार या आचरण करे, जिससे वह विरोधी, विद्वेषी या प्रतिक्रियावादी बन जाए । धर्मश्रवण करने आदि सद्भावों में प्रवृत्त अन्यतीर्थी या अन्य व्यक्ति में अपने प्रतिवाद रूप वचन अनुष्ठान से विरोध, विद्वेष, चित्त में दुःख या विषाद उत्पन्न हो, वैसा वचन या अनुष्ठान न करे । इन गुणों से युक्त साधक ही आक्षेपकर्ताओं के आक्षेपरूप उपसर्ग पर यथार्थरूप से विजय प्राप्त कर सकता है । ११ प्रतिपक्षी के पूर्वोक्त आक्षेपों का उत्तर किस पद्धति से दे ? – पूर्वगाथाओं में प्रतिवादी के द्वारा सुविहित साधुओं पर परोक्ष एवं प्रत्यक्षरूप से मिथ्या आक्षेपों का निदर्शन बताया गया है । और यह भी कहा जा चुका है कि प्रतिपक्षी के आक्षेपों का प्रतिवाद मोक्ष विशारद आदि सात गुणों से सम्पन्न साधु यथायोग्य अवसर देखकर कर सकता है । अब प्रश्न यह है कि प्रतिपक्षी के पूर्वोक्त आक्षेपों का उत्तर पूर्वोक्त गुणसम्पन्न साधु को किस पद्धति से देना चाहिए ? इस विषय में शास्त्रकार ने सूत्रगाथा २१४ से २१६ तक प्रकाश डाला है । आक्षेपों के उत्तर के मुख्य मुद्द े ये हैं- (१) आपके आक्षेपयुक्त वचनों से आप द्विपक्ष या दुष्पक्ष का सेवन करते प्रतीत होते हैं, (२) आप गृहस्थ के कांसा, तांबा आदि धातु के बर्तनों में भोजन करते हैं, (३) रोगी संत के लिए गृहस्थ से आहारादि मँगवाते हैं, (४) सचित्त बीज और जल ११ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ६१ से ε३ के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४५६ से ४६२
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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