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तृतीय उद्देशक : गाथा २१४ से २२३
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मक्ख विसारए - प्रतिवादकर्ता साधु सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप मोक्षमार्ग की प्ररूपणा करने में प्रवीण होना चाहिए । अगर वह साधु स्वयं ही शिथिल आचार का पोषक हुआ तो वह आक्षेपकों के आक्षेप का निराकरण ठीक से न कर सकेगा और न ही उसके द्वारा किये गये निराकरण का साधारण जनता पर या आक्षेपकों पर प्रभाव पड़ेगा । इसलिए आक्षेप - निवारक साघु का मोक्ष प्ररूपणा में विशारद होना आवश्यक है ।
अपडणेण - जो किसी प्रकार की मिथ्या अर्थ बताने की प्रतिज्ञा - से रहित है, वह अप्रतिज्ञ होता है, प्रतिवादकर्ता साधु इस प्रकार की प्रतिज्ञावाला न हो कि मुझे अपनी बात की सिद्धि के लिए असत्य अर्थ का भी समर्थन कर देना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार असत्य बातों का समर्थक साधु होगा तो वह आक्षेपकों के प्रति न्यायी, एवं विश्वस्त नहीं रहेगा । वह स्व- मोह एवं पर-द्वेष में पड़ जायगा । राग और द्वेष आदि सिद्धान्त - प्रतिकूल विचारों के प्रवाह में बह जायेगा । अथवा अप्रतिज्ञ यानी उसकी जानकारी सिद्धान्त- प्रतिकूल नहीं होनी चाहिए। सिद्धान्त- प्रतिकूल जानकारी वाला साधक स्वयं अपने सिद्धान्त से च्युत हो जायेगा, आक्षेपकों का निराकरण सिद्धान्तानुकूल नहीं कर सकेगा ।
जाणया - फिर वह प्रतिवादकर्ता साधक स्वयं हेयोपादेय का सम्यक् ज्ञाता होना चाहिए तभी वह आक्षेपकों को उपादेय तत्त्व के अनुरूप शिक्षा दे सकेगा तथा आक्षेपकों की बातों में हेयोपादेय तत्त्व का विश्लेषण करके समझा सकेगा ।
रागदोसाभिभूतप्पा''''अवकोसे सरणं जंति - प्रतिवादकर्ता साधु को इस बात को समझने में कुशल होना चाहिए कि प्रतिपक्षी विवाद में न टिक पाने के कारण अपनी हार की प्रतिक्रिया स्वरूप अपशब्द, गाली, या डंडे, मुक्के या शस्त्रादि द्वारा प्रहार करने आदि पर उतर आया है, तो उन्हें राग-द्व ेष कषाय, मिथ्यात्व आक्रोश आदि विकारों के शिकार जानकर उनसे विवाद में नहीं उलझना चाहिए न ही आक्रमण के बदले प्रत्याक्रमण या आक्रोश प्रहार आदि हिंसक तरीकों का आश्रय लेना चाहिए । विश्वबन्धु साधु को उस समय उनके प्रति उपेक्षा भाव रखकर मौन हो जाना ही श्रेयस्कर है । जैसा कि वृत्तिकार कहते हैं
'अक्कोस - हणण- मारण-धम्मन्मंसाण बालसुलभाणं । लाभं मन्नह धीरो जहुत्तराणं अभावमि ।।"
अर्थात्–गाली देना, रोष करना, मारपीट या प्रहार करना अथवा धर्मभ्रष्ट करना; ये सब कार्य निपट नादान बच्चों के से हैं। धीर साधु पुरुष ऐसे लोगों की बातों का उत्तर न देना ही लाभदायी समझते हैं ।
इस दृष्टि से शास्त्रकार ने प्रतिवादकर्ता साघु का आवश्यक गुण ध्वनित कर दिया है कि वह इतना अवसरज्ञ हो कि आक्षेपक यदि हिंसा पर उतर आए तो उसके साथ प्रतिहिंसा से पेश न आकर शान्त एवं मौन हो जाए ।
अत्तसमाहिए - प्रतिवादकर्ता साधु में आत्म-समाधि में दृढ़ रहने का गुण होना चाहिए। कैसी भी परिस्थिति हो, वह अपनी आत्मसमाधि - मानसिक शान्ति प्रसत्रता या चित्त की स्वस्थता न खोए ।