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________________ २१६ सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा विवेचन-परवादिकृत-आक्षेपरूप उपसर्ग-निवारण कोन, क्यों और कैसे करें-इससे पूर्व परवादिकृत आक्षेपरूप उपसर्ग के कुछ नमूने प्रस्तुत किये गये हैं। अब सूत्रगाथा २१४ से २२३ तक १० सूत्रगाथाओं में बताया गया है कि परवादिकृत पूर्वोक्त आक्षेपों का निराकरण करे या नहीं ? करे तो कौन करे ? कैसे करे ? किस पद्धति से करे? आक्षेप निवारण करे या नहीं ? सर्वप्रथम यह प्रश्न होता है कि सुसाधुओं की या उनके आचारविचार पर कोई अन्यतीर्थी छींटाकशी करे, नुक्ता-चीनी करे, अथवा निन्दा, आलोचना या मिथ्या आक्षेप करे तो क्या वे उसे चुपचाप सुन लें, सहलें, या उसका प्रतिवाद करें, या उनके गलत आक्षेपों का निराकरण करें और भ्रान्ति में पड़े हुए लोगों को यथार्थ वस्तुस्थिति समझाए ? यद्यपि इससे पूर्व गाथा २११ में इस प्रकार के मिथ्या आक्षेपकों को समाधि से दूर मानकर शास्त्रकार ने साधुओं को उनके प्रति उपेक्षा करने, ध्यान न देने की बात ध्वनित की है। परन्तु आक्षेपक जब व्यक्तिगत आक्षेप तक सीमित न रहकर उसे समूह में फैलाए, उसे निन्दा और बदनामी का रूप देने लगें, जैसा कि पूर्वोक्त सूत्र-गाथाओं में वर्णित है, तब शास्त्रकार उक्त मिथ्या आक्षेपों का प्रतिवाद करने का निर्देश करते हैं-"अह ते परिभासेज्जा मिक्खू मोक्ख विसारए।" शास्त्रकार का आशय यह प्रतीत होता है कि अगर वस्तुतत्त्व प्रतिपादन में निपुण तत्त्ववेत्ता स्वयं की व्यक्तिगत आलोचना या निन्दा को चुपचाप समभावपूर्वक सहलेता है, बदले में कुछ नहीं कहता तो यह अपनी आत्मा के लिए निर्जरा (कर्मक्षय) का कारण होने से ठीक है, परन्तु जब समग्र साधु-संस्था या संघ पर मिथ्या आक्षेप होता है, तब उसे चुपचाप सुन लेना अच्छा नहीं; ऐसा करने से वस्तु तत्त्व से अनभिज्ञ साधारण जनता प्रायः यही समझ लेती है कि इनके धर्म, संघ या साधु वर्ग में कोई दम नहीं है। ये तो गृहस्थों की तरह अपने-अपने दायरे में, अपने-अपने गुरु-शिष्यों में मोहवश बन्धे हुए हैं । इस प्रकार एक ओर धर्मतीर्थ (संघ) की अवहेलना हो, दूसरी ओर साधु-संस्था के प्रति जनता में अश्रद्धा बढ़े, तथा मिथ्यावाद को उत्तेजना मिले तो यह दोहरी हानि है। इससे संघ में नवीन मुमुक्षु साधकों का प्रवेश तथा सद्गृहस्थों द्वारा व्रत में धारण रुकना सम्भव है। इसलिए शास्त्रकार ने इस गाथा द्वारा मार्ग-दर्शन दिया है कि ऐसे समय साधु तटस्थ भावपूर्वक आक्षेपकर्ताओं से प्रतिवाद के रूप में कहे। आक्षेप निवारणकर्ता भिक्षु की योग्यता-शास्त्रकार ने आक्षेप का प्रतिवाद करने का निर्देश किया है, किन्तु साथ ही कौन साधु प्रतिवाद कर सकता है ? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार ने सूत्रगाथा २१४, २१६, २२१ और २२२ में आक्षेप निवारक भिक्षु के विशेष गुणों के सम्बन्ध में क्रमशः प्रकाश डाला है। वे गुण क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) वह साधु मोक्षविशारद हो, (२) वह अप्रतिज्ञ हो, (३) वह हेयोपादेय का सम्यग् ज्ञाता हो, (४) क्रुद्ध, द्वषो विरोधियों का प्रतिवाद क्रोध-द्वेष-वधादिपूर्वक न करे, (५) आत्मसमाधि से युक्त हो, (६) अनेक गुणों का लाभ हों, तभी प्रतिवाद करता हो, (७) दूसरे लोग विरोधी न बन जाएँ, ऐसा आचरण करता हो। १० सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या; पृ० ४५६
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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