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________________ तृतीय उद्देसक : माथा २१४ से २२३ २१५ , २१४. इसके पश्चात् मोक्षविशारद (ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप मोक्ष की प्ररूपणा करने में निपुण) साधु उन (अन्यतीथिकों) से (इस प्रकार) कहे कि यों कहते (आक्षेप करते) हुए आप लोग दुष्पक्ष (मिथ्यापक्ष) का सेवन करते (आश्रय लेते) हैं। ३१५. आप सन्त लोग (गृहस्थ के कांसा, तांबा आदि धातु के) पात्रों में भोजन करते हैं; रोगी सन्त के लिए गृहस्थों से (अपने स्थान पर) भोजन मँगवा कर लेते हैं तथा आप बीज और सचित्त (कच्चे) जल का उपभोग करते हैं एवं जो आहार किसी सन्त के निमित्त (उद्देश्य से) बना है उस औद्देशिक आदि दोषयुक्त आहार का सेवन करते हैं। २१६. आप लोग तीव्र कषायों अथवा तीब्र बन्ध वाले कर्मों से लिप्त (सद्विवेक से-) रहित तथा समाधि (शुभ अध्यवंसाय) से रहित हैं। (अतः हमारी राय में) घाव (ब्रण) का अधिक खुजलाना अच्छा नहीं है, क्योंकि उससे दोष (विकार) उत्पन्न होता है ।। २१७. जो प्रतिकूल ज्ञाता नहीं है अथवा जिसे मिथ्या (विपरीत) अर्थ बताने की प्रतिज्ञा नहीं है तथा जो हेय-उपादेय का ज्ञाता साधु है; उसके द्वारा उन (आक्षेपकर्ता अन्य दर्शनियों) को सत्य (तत्त्व वास्तविक) बात की शिक्षा दी जाती है कि यह (आप लोगों द्वारा स्वीकृत) मार्ग (निन्दा का रास्ता) नियत (युक्ति-संगत) नहीं है, आपने सुविहित साधुओं के लिए जो (आक्षेपात्मक) वचन कहा है, वह बिना विचारे कहा है, तथा आप लोगों का आचार भी विवेक शून्य है। २१८. आपका यह जो कथन है कि साधु को गृहस्थ के द्वारा लाये हुए आहार का उपभोग (सेवन) करना श्रेयस्कर है, किन्तु साधु के द्वारा लाये हुए का नहीं; यह बात बांस के अग्रभाग की तरह कमजोर है (वजनदार नहीं है ।) (साधओं को दान आदि देकर उपकार करना चाहिए). यह जो धर्म-प्रज्ञापना (धर्म-देशना) है, वह आरम्भ-समारम्भयुक्त गृहस्थों की विशुद्धि करने वाली है, साधुओं की नहीं, इन दृष्टियों से (सर्वज्ञों ने) पूर्वकाल में यह प्ररूपणा नहीं की थी। २२०. समग्र युक्तियों से अपने पक्ष की सिद्धि (स्थापना) करने में असमर्थ वे अन्यतीर्थी तब वाद को छोड़कर फिर अपने पक्ष की स्थापना करने की धृष्टता करते हैं। २२१. राग और द्वेष से जिनकी आत्मा दबी हुई है, जो व्यक्ति मिथ्यात्व से ओतप्रोत हैं, वे अन्य तीर्थी शास्त्रार्थ में हार जाने पर आक्रोश (गाली या अपशब्द आदि) का आश्रय लेते हैं। जैसे (पहाड़ पर रहने वाले) टंकणजाति के म्लेच्छ (युद्ध में हार जाने पर) पर्वत का ही आश्रय लेते हैं । २२२. जिसकी चित्तवृत्ति समाधि (प्रसन्नता या कषायोपशान्ति) से युक्त है, वह मुनि, (अन्यतीर्थी के साथ विवाद के समय) अनेक गुण निष्पन्न हों, जिससे इस प्रकार का अनुष्ठान करे और दूसरा कोई व्यक्ति अपना विरोधी न बने । २२३. काश्यपगोत्रीय भगवान् महावीर स्वामी के द्वारा कहे हुए इस धर्म को स्वीकार करके समाधि युक्त भिक्षु रुग्ण साधु की सेवा (वैयावृत्य) ग्लानि रहित होकर करे।
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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