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सूत्रकृतांग-तृतीय अध्ययन-उपसर्गपरिज्ञा बिइओ उद्देसओ
द्वितीय उद्देशक
अनुकूल उपसर्ग : सूक्ष्म संग रुप एवं दुस्तर
१८२ अहिमे सुहुमा संगा भिक्खूणं जे दुरुत्तरा।
जत्थ एगे विसीयंति ण चयंति जवित्तए ॥ १ ॥ १८२. इसके (प्रतिकूल उपसर्ग के वर्णन के) पश्चात् ये सूक्ष्म (स्थूल रूप से प्रतीत न होने वालेअनुकूल) संग बन्धु-बान्धव आदि के साथ सम्बन्ध रूप उपसर्ग हैं, जो भिक्षुओं के लिए दुस्तर-दुरतिक्रमणीय होते हैं। उन सूक्ष्म आन्तरिक उपसर्गों के आने पर कई (कच्चे) साधक व्याकुल हो जाते हैंवे संयमी जीवन-यापन करने में असमर्थ बन जाते हैं।
विवेचन-सूक्ष्म-अनुकूल उपसर्गः दुस्तर एवं संयमच्युतिकर-प्रस्तुत सूत्रगाथा में अनुकूल उपसर्गों का वर्णन प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार उनका परिचय देते हैं। अनुकूल उपसर्गों की पहिचान दो प्रकार से होती है-(१) ये सूक्ष्म संग रूप होते हैं, (२) दुरुत्तर होते हैं। इनका प्रभाव विवेकमूढ़ साधक पर दो तरह से होता है-(१) वे घबरा जाते हैं, या (२) संयमी जीवन निभाने में असमर्थ हो जाते हैं ?
ये उपसर्ग सूक्ष्म और दुरुत्तर क्यों ?-स्थूल दृष्टि से देखने वाला इन्हें सहसा उपसर्ग नहीं कहेगा, बल्कि यह कहेगा कि इन आने वाले उपसर्गों को तो आसानी से सहन किया जा सकता है। इनको सहने में काया को कोई जोर नहीं पड़ता। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं-'अहिमे सुहुमा संगा भिक्खणं जे दुरुत्तरा', आशय यह है कि अपने पूर्वाश्रम के माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र आदि स्वजनों का मधुर एवं स्नेहस्निग्ध संसर्ग (सम्बन्ध) रूप उपसर्ग इतना सूक्ष्म होता है कि वह साधक के शरीर पर हमला नहीं करता, अपितु उसके मन पर घातक आक्रमण करता है, उसकी चित्तवृत्ति में उथल-पुथल मचा देता है । इसीलिए इस संगरूप उपसर्ग को सूक्ष्म यानी आन्तरिक बताया गया है। प्रतिकूल उपसर्ग तो प्रकट रूप से बाह्य शरीर को विकृत करते हैं, किन्तु ये (अनुकूल) उपसर्ग बाह्य शरीर को विकृत न करके साधक के अन्तोदय को विकृत बना देते हैं।
इन सूक्ष्मसंगरूप उपसर्गों को दुस्तर (कठिनता से पार किये जा सकनेवाले) इसलिए बताया गया है कि प्राणों को संकट में डालने वाले प्रतिकूल उपसर्गों के आने पर तो साधक सावधान होकर मध्यस्थवृत्ति धारण कर सकते हैं, जबकि अनुकूल उपसर्ग आने पर मध्यस्थ वृत्ति का अवलम्बन लेना अतिकठिन होता है । इसीलिए सूक्ष्म या अनुकूल उपसर्ग को पार करना अत्यन्त दुष्कर बताया गया है।'
१ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति सहित भाषानुवाद भा॰ २, पृ० २५ का सारांश
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८पर से (ग) सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या पु. ४२३ के आधार पर