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द्वितीय उद्देशक : गाथा १८३ से १६५
इन उपसर्गों का प्रभाव - गाथा के उत्तराद्ध में इन उपसर्गों का प्रभाव बताया गया है। इन अनुकूल उपसर्गों के आने पर कई महान् कहलाने वाले साधक भी धर्माराधना या संयम साधना से विचलित एवं भ्रष्ट हो जाते हैं, सुकुमार एवं सुखसुविधा - परायण कच्चे साधक तो बहुत जल्दी अपने संयम से फिसल जाते हैं, सम्बन्धियों के मोह में पड़कर वे संयम पालन में शिथिल अथवा धीरे-धीरे सर्वथा भ्रष्ट हो जाते हैं । वे संयम पूर्वक अपनी जीवन यात्रा करने में असमर्थ हो जाते हैं । सदनुष्ठान के प्रति वे विषण्ण ( उदासीन) हो जाते हैं, संयम पालन उन्हें दुःखदायी लगने लगता है । वे संयम को छोड़ बैठते हैं। या छोड़ने को उद्यत हो जाते हैं । "
कठिन शब्दों की व्याख्या - सुहमा - प्रायः चित्त विकृतिकारी होने से आन्तरिक हैं, तथा प्रतिकूल उपसर्गवत् प्रकटरूप से शरीर विकृतिकारी एवं स्थूल न होने से सूक्ष्म हैं । संगा - माता-पिता आदि का सम्बन्ध । 'जत्य एगे विसोयंति - जिन उपसर्गों के आने पर अल्पपराक्रमी साधक विषण्ण हो जाते हैं, शिथिलाचार-परायण हो जाते हैं, संयम को छोड़ बैठते हैं । चूर्णिकार सम्मत पाठान्तर है - ' जत्थ मंदा विसीति' अर्थ प्रायः एक-सा ही है । 'ण चयंति जवित्तए' नैवात्मानं संयमानुष्ठानेन यानयितं वर्तयितु तस्मिन् वा व्यवस्थापयितुं शक्नुवन्ति समर्था भवन्ति ।' अर्थात् - अपने आपको संयमानुष्ठान के साथ जीवन निर्वाह करने में, संयम में टिकाए रखने में समर्थ नहीं होते ।
'स्वजनसंग रुप्प उपसर्ग : विविध रूपों में
१८३. अप्पेगे णायओ दिस्स रोयंति परिवारिया ।
पोसणे तात पुट्ठोऽसि कस्स तात चयासि णे ॥ २ ॥ १८४. पिता ते थेओ तात ससा ते खुड्डिया इमा ।
भायरो ते सगा तात सोयरा किं चयासि णे ॥ ३ ॥ १८५ मातरं पितरं पोस एवं लोगो भविस्सइ ।
एवं खु लोइयं ताय जे पोसे पिउ-मातरं ॥ ४॥
१८६. उत्तरा महुरुल्लावा पुत्ता ते तात खुड्डुगा
भारिया ते णवा तात मा से अण्णं जणं गमे ॥ ५ ॥ १८७ एहि ताय घरं जामो मा तं कम्म सहा वयं ।
पिता पासामो जामु ताव सयं हिं ॥ ६ ॥
२ सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४२३ पर से ३ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ८३
(ख) सूत्रकृतांग चूर्णि (मूल पाठ टिप्पण) पृष्ठ ३३