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प्रस्तुत अध्ययन के में चार तथ्यों का सांगोपांग निरुपण किया गया है— (१) कैसे-कैसे उपसर्ग किस-किस रूप में आते हैं ।
सूत्रकृतांग - तृतीय अध्ययन - उपसर्ग परिशा
(२) उन उपसर्गों को सहने में क्या-क्या पीड़ा होती है,
(३) उपसर्गों से सावधान न रहने या उनके सामने झुक जाने से कैसे संयम का विघात होता है ? (४) उपसर्गों के प्राप्त होने पर साधक को क्या करना चाहिए १४
D प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं- प्रथम उद्देशक में प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन हैं । द्वितीय उद्देशक में स्वजन आदिकृत अनुकूल उपसर्गों का निरूपण है । तृतीय उद्देशक में आत्मा में विषाद पैदा करने वाले अन्यतीर्थिकों के तीक्ष्णवचन रूप उपसर्गों का विवेचन है और चतुर्थ उद्द ेशक में अन्यतीर्थिकों के हेतु सदृश प्रतीत होने वाले हेत्वाभासों से वस्तुस्वरूप को विपरीत रूप में ग्रहण करने से चित्त को विभ्रान्त एवं मोहित करके जीवन को आचार भ्रष्ट करने वाले उपसर्गों का तथा उन उपसंर्गों के समय स्वसिद्धान्त प्रसिद्ध मुक्ति संगत हेतुओं द्वारा यथार्थ बोध देकर संयम में स्थिर रहने का उपदेश है ।
चारों उद्दे शकों में क्रमश: १७, २२, २१ और २२ गाथाएँ हैं ।
इस अध्ययन की सूत्र गाथा संख्या १६५ से प्रारम्भ होकर गाथा २४६ पर समाप्त है ।
४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ७८ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० ४०२
५ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ४६, ५०
(क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७८
(ग) जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा० १, पृ० १४२, १४३, १४४