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________________ प्राथमिक १८१ कर्ता या उपसर्ग करने का साधन द्रव्य उपसर्ग है। यह दो प्रकार का है-चेतन द्रव्यकृत, अचेतन द्रव्यकृत । तिर्यञ्च, मनुष्य आदि सचेतन प्राणी अंगों का घात करके जो उपसर्ग (देह पीड़ा) उत्पन्न करते हैं, वह सचित्त द्रव्यकृत है और काष्ठ आदि अचित्त द्रव्यों द्वारा किया गया आघात अचित्त द्रव्यकृत उपसर्ग है। जिस क्षेत्र में क्रूर जीव, चोर आदि द्वारा शरीर पीड़ा, संयम-विराधना आदि होती है, अथवा कोई वस्तु किसी क्षेत्र में दुःख उत्पन्न करती है, उसे क्षेत्रोपसर्ग कहते हैं। जिस काल में एकान्त दुःख ही होता है, वह दुःषम आदि काल, अथवा-ग्रीष्म, शीत आदि ऋतुओं का अपने-अपने समय में दुःख उत्पन्न करना कालोपसर्ग है। ज्ञानावरणीय, असातावेदनीय आदि कर्मों का उदय होना भावोपसर्ग है। - नाम और स्थापना को जोड़कर पूर्वोक्त सभी उपसर्ग औधिक और औपक्रमिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं। " अशुभकर्म प्रकृति से उत्पन्न उपसर्ग औधिक उपसर्ग है, और डंडा, चाबुक, शस्त्र, मुट्ठी आदि के द्वारा जो दुःख उत्पन्न होता है, वह औपक्रमिक उपसर्ग है । - यहाँ 'उपक्रम' का अर्थ है-जो कर्म उदय-प्राप्त नहीं है, उसका उदय होना। अत: औपक्रमिक , उपसर्ग का अर्थ हुआ-जिस द्रव्य का उपयोग करने से, या जिस द्रव्य के निमित्त से असातावेदनीय आदि अशुभकर्मों का उदय होता है, और जब अशुभकर्मोदय होता है, तब अल्प पराक्रमी साधक के संयम में विघ्न, दोष या विघात आ जाता है, उस द्रव्य द्वारा उत्पन्न उपसर्ग को 'औपक्रमिक उपसर्ग' कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रवृत्त मुनियों का संयम (रत्नत्रय साधक) ही मोक्ष का अंग है। अतः उस संयम में विघ्नकारक औपक्रमिक उपसर्ग का ही इस अध्ययन में वर्णन है, औधिक उपसर्ग का नहीं। - औपक्रमिक उपसर्ग द्रव्य रूप से चार प्रकार का होता है-दैविक, मानुष्य, तिर्यञ्चकृत और आत्म-संवेदन रूप। इनमें से प्रत्येक के चार-चार प्रकार होते हैं। दैविक (देवकृत) उपसर्ग हास्य से, द्वेष से, परीक्षा करने के लिए तथा अन्य अनेक कारणों से होता है। मनुष्यकृत उपसर्ग भी हास्य से, द्वष से, परीक्षा करने के लिए एवं कुशील सेवन निमित्त से होता है । तिर्यञ्चकृत उपसर्ग भय से, द्वष से, आहार के लिए तथा अपनी संतान आदि की रक्षा के लिए होता है आत्म संवेदन रूप उपर चार प्रकार का होता है (१) अंगों के परस्पर रगड़ने से, (२): ल आदि अंगों के चिपक जाने या कट जाने से (३) रक्त संचार रुक जाने से एवं ऊपर से गिर जाने से । अथवा (४) वात, पित्त, कफ और इन तीनों के विकार से भी आत्म-संवेदनरूप उपसर्ग चार प्रकार का होता है पूर्वोक्त देवकृत आदि चारों उपसर्ग अनुकूल और प्रतिकूल के भेद से ८ प्रकार के है। तथा पूर्वोक्त चारों के ४ भेदों को परस्पर मिलाने से कुल १६ भेद उपसर्गों के होते हैं। ३ (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति गा० ४५, ४६, ४७, ४८ (ख) सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति पत्रांक ७७.७८
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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