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________________ उपसर्ग-परिज्ञा : तृतीय अध्ययन प्राथमिक 0 सूत्रकृतांगसूत्र के तृतीय अध्ययन का नाम है-'उपसर्गपरिज्ञा'0 प्रतिबुद्ध (सम्यक् उत्थान से उत्थित) साधक जब मोक्ष प्राप्ति हेतु रत्नत्रय की साधना करने जाता है, तब से लेकर साधना के अन्त तक उसके समक्ष कई अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग आते हैं। कच्चा साधक उस समय असावधान हो तो उनसे परास्त हो जाता है, उसकी की हुई साधना दूषित हो जाती है। अतः साधक उन उपसर्गों को भलीभांति जाने और उनसे पराजित न होकर समभाव पूर्वक अपने धर्म पर डटा रहे तभी वह वीतराग, प्रशान्तात्मा एवं स्थितप्रज्ञ बनता है । यही इस अध्ययन का उद्देश्य है।' - उपसर्गों की परिज्ञा दो प्रकार से की जाती है-(१) ज्ञपरिज्ञा से उन्हें जाने और (२) प्रत्याख्यान परिज्ञा से उनके समक्ष डटा रहकर प्रतीकार करे। यही तथ्य उपसर्ग परिज्ञा अध्ययन में प्रति पादित है। - 'उपसर्ग' जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। नियुक्तिकार ने उपसर्ग का निर्वचन इस प्रकार किया है-'जो किसी देव, मनुष्य या तिर्यञ्च आदि दूसरे पदार्थों से (साधक के समीप) आता है तथा जो साधक के देह और संयम को पीड़ित करता है वह 'उपसर्ग' कहलाता है। उपताप, शरीर-पीडोत्पादन इत्यादि उपसर्ग के पर्यायवाची शब्द हैं। प्रचलित भाषा में कहें तो, साधना काल में आने वाले इन विघ्नों, बाधाओं, उपद्रवों और आपत्तियों को उपसर्ग कहा जाता हैं। D नियुक्तिकार ने 'उपसर्ग' को विभिन्न दृष्टियों से समझाने के लिए ६ निक्षेप किये हैं-(१) नाम उपसर्ग, (२) स्थापना-उपसर्ग, (३) द्रव्य-उपसर्ग, (४) क्षेत्र-उपसर्ग, (५) काल-उपसर्ग और (६) भाव-उपसर्ग। - किसी का गुण शून्य उपसर्ग नाम रख देना 'नाम-उपसर्ग' हैं, उपसर्ग सहने वाले या उपसर्ग सहते समय की अवस्था को चित्रित करना, या उसका कोई प्रतीक रखना 'स्थापना-उपसर्ग' है, उपसर्ग -सूत्रकृतांग नियुक्ति गा०४५ १ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७७ २ (क) "आगंतुगो य पीलागरो य जो सो उवसग्गो।" (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७७ (ग) जैन साहित्य का बहद् इतिहास भा० १ पृ० १४२
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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