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तृतीय उद्देशक : गाथा १६४
इतिहास बताते हुए कहते हैं - 'एवं से उदाहु - वेसालिए वियाहिए'। इसका आशय यह है कि 'तीन उद्दे शकों से युक्त इस वेतालीय अध्ययन में जो उपदेश है, वह आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने ह८ पुत्रों को लक्ष्य करके अष्टापद पर्वत पर दिया था, उसे ही भगवान महावीर स्वामी ने हमें ( गणधरों को ) विशाला नगरी में फरमाया था । उसी उपदेश को मैं तुमसे कहता हूँ ।"
भगवान महावीर के विशेषणों के अर्थ - प्रस्तुत गाथा में भगवान् महावीर के ७ विशेषण उनकी मोक्ष प्राप्ति की गुणवत्ता एवं योग्यता बताने के लिए प्रयुक्त किये गये हैं । उनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैंअणुत्तर णाणी – केवलज्ञानी जिससे उत्तम ( बढ़कर और कोई ज्ञान कहीं ऐसे अनुत्तर ज्ञान से सम्पन्न । अणुत्तरदंसी — केवलदर्शन, जिससे बढ़कर कोई दर्शन न हो, ऐसे अनुत्तर दर्शन से सम्पन्न । अणुत्तर णाणदंसण घरे= केवल (अनुत्तर) ज्ञान दर्शन के धारक । अरहा = इन्द्रादि देवों द्वारा पूज्य अर्हन् । नायपुत्तं = ज्ञातृकुल
उत्पन्न होने से ज्ञातपुत्र । भगवं = ऐश्वर्यादि छः गुणों से युक्त भगवान् । वेसालिए- इसके संस्कृत में दो रूप बनते हैं वैशालिकः और वैशाल्याम् । अतः 'वैसालिए' के तीन अर्थं निकलते हैं -- (१) वैशाली में, अथवा विशाला नगरी में किया गया प्रवचन, (२) विशाल कुल में उत्पन्न होने से वैशालिक भगवान् ऋषभदेव, (३) अथवा वैशालिक भगवान् महावीर । पिछले अर्थ का समर्थन करने वाली एक गाथा वृत्तिकार ने दी "विशाला जननी यस्य, विशालं कुलमेव वा ।
विशालं वचनं चास्य, तेन वैशालिको जिनः ॥ ४३
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अर्थात् (भगवान महावीर ) की माता विशाला थी, उनका कुल भी विशाल था, तथा उनका प्रवचन भी विशाल था, इसलिए जिनेन्द्र ( भगवान् महावीर ) को वैशालिक कहा गया है । इसलिए 'वैसा लिए वियाहिए' का अर्थ हुआ - ( १ ) वैशाली नगरी में (यह उपदेश ) कहा गया था, अथवा (२) वैशालिक भगवान् महावीर ने (इसका ) व्याख्यान किया था ।
अधिक गाथा - एक प्रति में चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के द्वारा व्याख्या न की हुई एक गाथा इस अध्ययन के अन्त में मिलती है
' इति कम्मवियालमुत्तमं जिणवरेण सुवेसियं सया ।
जे आचरंति आहियं खवितरया वहति ते सिवं गति । २४४
त्ति बेमि
अर्थं - इस प्रकार उत्तम कर्मविदार नामक अध्ययन का उपदेश श्री जिनवर ने स्वयं फरमाया है, इसमें कथित उपदेश के अनुसार जो आचरण करते हैं, वे अपने कर्मरज का क्षय करके मोक्षगति प्राप्त कर लेते हैं । - ऐसा मैं कहता
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तृतीय उद्देशक समाप्त
॥ वैतालीय : द्वितीय अध्ययन सम्पूर्ण ||
४३ सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति पत्रांक ७६ के आधार पर ४४ सूयगडंग सुत्तं मूल (जम्बू विजयजी - सम्पादित ) पृ० ३०