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________________ उवसग्गपरिण्णा-तइयं अज्झयणं ____ पढमो उद्देसओ उपसर्ग-परिज्ञा : तृतीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक प्रतिकूल-उपसर्ग विजय : १६५. सूरं मन्नति अप्पाणं जाव जेतं न पस्सति । . जुझंतं दढधम्माणं सिसुपाले व महारहं ॥१॥ १६६. पयाता सूरा रणसीसे संगासम्म उवद्विते । माता पुत्तं ण याणाइ जेतेण परिविच्छए ॥२॥ १६७. एवं सेहे वि अप्पुढे भिक्खाचरियाअकोविए। सूरं मन्नति अप्पाणं जाव लूहं न सेवई ॥३॥ १६५. जब तक विजेता पुरुष को नहीं देख लेता, (तब तक कायर) अपने आपको शूरवीर मानता है । युद्ध करते हुए दृढधर्मा (अपने प्रण पर दृढ़) महारथी (श्रीकृष्ण) को देखकर जैसे शिशुपाल के छक्के छूट गए थे। १६६. युद्ध छिड़ने पर युद्ध के अग्रभाग में (मोर्चे पर) पहुंचे हुए शूरवीर (वीराभिमानी पुरुष), (जिस युद्ध में) माता अपनी गोद से गिरते हुए बच्चे को नहीं जानतो, (ऐसे कलेजा कंपा देने वाले भयंकर युद्ध में), जब विजेता पुरुष के द्वारा क्षत-विक्षत (घायल) कर दिये जान पर दीन हो जाते हैं। १६७. इसी प्रकार भिक्षाचर्या में अनिपुण तथा परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श नहीं पाया हुआ नवदीक्षित साधु (शैक्ष) भी अपने आपको तभी तक शूरवीर मानता है, जब तक वह संयम का सेवनआचरण नहीं करता। विवेचन-उपसर्ग विजय-कितना सरल, कितना कठिन ?-प्रस्तुत तीन गाथाओं में शास्त्रकार साधक को दृष्टान्तों द्वारा उपसर्ग विजय की महत्ता समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि (१) उपसर्ग पर विजय पाना कायर एवं शूराभिमानी पुरुष के लिए उतना आसान नहीं, जितना वह समझता है, (२) कदाचित युद्ध के मोर्चे पर कोई वीराभिमानी कायर पुरुष आगे बढ़ भी जाए, किन्तु भीषण युद्ध में विजेता द्वारा घायल कर दिये जाने पर वह दीन हो जाता है, (३) भिक्षाचरी आदि साधुचर्या में
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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