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________________ द्वितीय उद्देशक : गाथा १३३ से १४२ १५१ १३६. जो पुरुष महान् महर्षि ज्ञातपुत्र के द्वारा कथित इस धर्म का आचरण करते हैं, वे ही मोक्षमार्ग में उत्थित (उद्यत) हैं, और वे सम्यक् प्रकार से समुत्थित (समुद्यत) हैं. तथा वे ही धर्म से (विचलित या भ्रष्ट होते हुए) एक-दूसरे को सँभालते हैं, पुनः धर्म में स्थिर या प्रवृत्त करते हैं। १३७. पहले भोगे हुए शब्दादि विषयों (प्रणामकों) का अन्तनिरीक्षण या स्मरण मत करो। उपधि (माया या अष्टविध कर्म-परिग्रह) को धुनने-दूर करने की अभिकांक्षा (इच्छा) करो । जो दुर्मनस्कों (मन को दूषित करने वाले शब्दादि विषयों) में नत (समर्पित या आसक्त) नहीं है, वे (साधक) अपनी आत्मा में निहित समाधि (राग-द्वष से निवृत्ति या धर्मध्यानस्थ चित्तवृत्ति) को जानते हैं। १३८. संयमी पुरुष विरुद्ध काथिक (कथाकार) न बने, न प्राश्निक (प्रश्नफल वक्ता) बने, और न ही सम्प्रसारक (वर्षा, वित्तोपार्जन आदि के उपाय निर्देशक) बने, न ही किसी वस्तु पर ममत्ववान् हो; किन्तु अनुत्तर (सर्वोत्कृष्ट) धर्म को जानकर संयमरूप धर्म-क्रिया का अनुष्ठान करे । १३६. माहन (अहिंसाधर्मी साधु) माया और लोभ न करे, और न ही मान और क्रोध करे। जिन्होंने धुत (कर्मों के नाशक- संयम) का अच्छी तरह सेवन-अभ्यास किया है, उन्हीं का सुविवेक (उत्कृष्ट विवेक) प्रसिद्ध हुआ है, वे ही (अनुत्तर धर्म के प्रति) प्रणत-समर्पित हैं। १४०. वह अनुत्तर-धर्मसाधक किसी भी वस्तु की स्पृहा या आसक्ति न करे, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की कार्य करे, इन्द्रिय और मन को गुप्त-सुरक्षित रखे.धर्मार्थी तपस्या में पराक्रमी बने, इन्द्रियों को समाहित-वशवर्ती रखे, इस प्रकार संयम में विचरण करे, क्योंकि आत्महित (स्वकल्याण) दुःख से प्राप्त होता है। १४१. जगत् के समस्त भावदर्शी ज्ञातपुत्र मुनिपुंगव भगवान् महावीर ने जो सामायिक आदि का प्रतिपादन किया है, निश्चय ही जीवों ने उसे सुना ही नहीं है, (यदि सुना भी है तो) जैसा (उन्होंने कहा, वैसा (यथार्थरूप से) उसका आचरण (अनुष्ठान) नहीं किया। १४२ इस प्रकार जानकर सबसे महान् (अनुत्तर) आर्हद्धर्म को मान (स्वीकार) करके ज्ञानादिरत्नत्रय-सम्पत्र गुरु के छन्दानुवर्ती (आज्ञाधीन या अनुज्ञानुसार चलने वाले) एवं पाप से विरत अनेक मानवों (साधकों) ने इस विशालप्रवाहमय संसारसागर को पार किया है, यह भगवान् महावीर स्वामी ने कहा है। -ऐसा मैं तुमसे कहता हूँ।। विवेचन-अनुत्तरधर्म और उसकी आराधना के विविध पहलू-सूत्रगाथा १३३ से १४२ तक दस सूत्रों में शास्त्रकार ने तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित अनत्तरधर्म का माहात्म्य और उसकी विविध प्रकार से अ की प्रक्रिया बतायी है । प्रथम दो सूत्र गाथाओं में अनुत्तर धर्म की महत्ता और उपादेयता कुशल दुर्जेय जुआरी की उपमा देकर समझायी है । तदनन्तर अनुत्तरधर्म को साधना के अधिकारी कौन हो सकते हैं ? इसके लिए दो अर्हताएँ बतायी हैं-(१) जो दुर्जेय ग्रामधर्म (शब्दादि विषय या काम) से निवृत्त हैं, तथा (२) जो मोक्षमार्ग में उत्थित-समुत्थित है। इसके बाद चार सूत्रगाथाओं (१३७ से १४० तक) में अनुत्तरधर्म के आराध क के लिए निषेध-विधान के रूप में कुछ आचारधाराएँ बतायी हैं-- (१) वह पूर्वभुक्त शब्दादि विषयों का स्मरण न करे, (२) अष्टविध कर्मपरिग्रह या माया (उपधि)
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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