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सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-वैतालीय को दूर करने की अभिकांक्षा करे, ताकि समाधि के दर्शन कर सके, (३) आत्महित-विरुद्ध कथा करने वाला न बने, (४) न प्राश्निक (प्रश्नों का फलादेश बताने वाला) बने, और (५) न सम्प्रसारक (अपने व्यक्तित्व का प्रसार (प्रसिद्धि) करने हेतु धनादि के सम्बन्ध में उपाय निर्देशक) बने, (६) किसी भी वस्तु पर ममता न रखे, (७) अनुत्तरधर्म को जानकर संयम साधक क्रिया करे, (८) क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग करे, () कर्मनाशक संयम (धुत) का सम्यक् अभ्यास करे, (१०) अनुत्तरधर्म के प्रति सर्वथा प्रणत - समर्पित हो, ताकि उसका सुविवेक जागृत हो, (११) संसार के सभी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति अनासक्त, निरपेक्ष एवं निरीह रहे, (१२) ज्ञानादि की वृद्धि वाले हित कार्य करे, (१३) इन्द्रियों
को अशुभ में जाने से बचाए-गुप्त रखे, (१४) धर्मार्थी बने, (१५) तपस्या में पराक्रमी हो, (१६) इन्द्रियाँ वश में रखें; (१७) प्रतिक्षण संयम में विचरण करे, ताकि आत्महित सिद्ध हो।
यह धर्म अनुत्तर और उपादेय क्यों ? प्रश्न होता है-यही धर्म अनुत्तर (सर्वश्रेष्ठ) क्यों हैं ? दूसरे क्यों नहीं ? इसके लिए दो विशेषताएँ यहाँ बताई गयी हैं-(१) यह लोक में त्राता सर्वज्ञ वीतराग द्वारा कथित है, (२) यह आत्मा के लिए हितकर है। इसी कारण चतुर अपराजेय जुआरी जैसे जुए के अन्य पाशों को छोड़कर कृत नामक पाशों को ही ग्रहण करता है, वैसे ही जिन-प्रवचन कुशल साधु को भी गृहस्थ, कूप्रावचनिक और पार्श्वस्थ आदि के धर्मों को छोड़कर सर्वज्ञ वीतरागोक्त सर्वोत्तम, सर्व महान्, सर्वहितकर, सार्वभौम, दशविध श्रमण धर्म रूप या श्रुत-चारित्र रूप अनुत्तर धर्म का ग्रहण करना चाहिए।
___'उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा"""इस वाक्य का आशय यह है कि ग्राम-इन्द्रिय समूह का धर्मविषय (स्वभाव), और इन्द्रिय-विषय ही काम है। काम मनुष्यों के लिए उत्तर-प्रधान या दर्जेय कहे गये हैं । 'उत्तर' का अर्थ यों तो प्रधान होता है, किन्तु लक्षणा से यहाँ वृत्तिकार ने इसका अर्थ 'दुर्जेय' किया है । संयमी पुरुषों को छोड़कर काम प्रायः सभी प्राणियों पर हावी हो जाता है. इसलिए यह दुर्जेय है। काम में सर्वेन्द्रिय-विषयों का एवं मैथुन के अंगों का समावेश हो जाता है।
इति मे अणुस्सुतं - इसका आशय यह है कि गणधर श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी आदि से कहते हैं-ऐसा मैंने कर्णोपकर्ण सुना है। अर्थात् जो पहले कहा गया है और आगे कहा जायेगा, यह सब आदितीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा था, इसके पश्चात् मैंने (आर्य सुधर्मा ने) भगवान महावीर से सुना था।
___ 'जं सि विरता समुद्विता "अणुधम्मचारिणो'-इस पंक्ति से श्री सुधर्मास्वामी का यह आशय प्रतीत होता है कि यद्यपि काम दुर्जेय है. तथापि जो पवितात्माएँ आत्मधर्म को तथा आत्मशक्तियों को सर्वोपरि जान-मानकर संयम-पथ पर चलने के लिए कटिबद्ध हैं, उनके लिए काम-विजय दुष्कर नहीं है । वास्तव में वे ही साधक भगवान ऋषभदेव या भगवान महावीर के धर्मानुगामी है।
'अणुधम्मचारिणो'-आचारांग आदि में अणुधम्म (अनुधर्म) का अर्थ है-पूर्व तीर्थंकरों द्वारा आचरित धर्म का अनुगमन-अनुसरण-पाली शब्द-कोष में अनुधर्म का अर्थ किया गया है-धर्म के अनुरूप-धर्मसम्मत । बौद्धग्रन्थ 'सुत्तपिटक' में भी अनुधम्मचारिनो' शब्द का यही अर्थ आता है ।२७
२७ भगवतो सावका वियत्ता विनीता विसारदा''अनुधम्मचारिनो
-सुत्तपिटके उदानं पृ० १३८