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सूत्रकृतांग-द्वितीय अध्ययन-बैतालीय
१३५ उत्तर मणुयाण आहिया, गामधम्मा इति मे अणुस्सुतं ।
जंसी विरता समुट्ठिता, कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २५ ॥ १३६ जे एय चरंति आहियं, नातेणं महता महेसिणा।
ते उठित ते समुट्ठिता, अन्नोन सारेति धम्मओ ॥२६॥ १३७ मा पेह पुरा पणामए, अभिकंखे उहि धुणित्तए ।
जे दूवणतेहि णो गया, ते जाणंति समाहिमाहियं ॥२७॥ १३८ णो काहिए होज्ज संजए, पासणिए ण य संपसारए।
णच्चा धम्म अणुत्तरं, ककिरिए य ण यावि मामए ॥२८॥ १३६ छण्णं च पसंस णो करे, न य उक्कास पगास माहणे ।
- तेसि सुविवेगमाहिते, पणया जेहिं सुझोसितं धुयं ॥२६।। १४० अणिहे सहिए सुसंवुडे, धम्मट्ठी उवहाणवोरिए।
विहरेज्ज समाहितिदिए, आयहियं खु दुहेण लब्भई ॥३०॥ १४१ ण हि णूण पुरा अणुस्सुतं, अदुवा तं तह णो समुठ्ठियं ।
मुणिणा सामाइयाहितं, णाएणं जगसव्वदंसिणा ॥३१॥ १४२ एवं मत्ता महंतर, धम्ममिणं सहिता बहू जणा। गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरता तिन्न महोघमाहितं ॥३२॥
ति बेमि ॥
१३३. कभी पराजित न होने वाला चतुर जुआरी (कुजय) जैसे कुशल पासों से जुआ खेलता हुआ कृत नामक चतुर्थ स्थान को ग्रहण करता है, कील को नहीं, (इसी तरह) न तो तृतीय स्थान (त्रेता) को ग्रहण करता है, और न ही द्वितीय स्थान (द्वापर) को।
१३४. इसी तरह लोक में जगत् (षड्जीवनिकायरूप) के त्राता (रक्षक) सर्वज्ञ के द्वारा कथित जो अनुत्तर (सर्वोत्तम) धर्म है, उसे वैसे ही ग्रहण करना चाहिए; जैसे कुशल जुआरी शेष समस्त स्थानों को छोड़कर कृत नामक स्थान को ही ग्रहण करता है। क्योंकि वही (धर्म) हितकर एवं उत्तम है।
१३५. मैंने (सुधर्मा स्वामी ने) परम्परा से यह सुना है कि ग्राम-धर्म (पाँचों इन्द्रियों के शब्दादि विषय अथवा मैथुन सेवन) इस लोक में मनुष्यों के लिए उत्तर (दुर्जेय) कहे गये हैं। जिनसे विरत (निवृत्त) तथा संयम (संयमानुष्ठान) में उत्थित (उद्यत) पुरुष ही काश्यपगोत्रीय भगवान् ऋषभदेव अथवा भगवान् महावीर स्वामी के धर्मानुयायी साधक हैं।