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द्वितीय उद्देशक : गाथा १३३ से १४२
"कुक्कुटसाध्यो लोको, नाकुक्कुटतः प्रवर्तते किंचित् । तस्याल्लोकस्यार्थे स्वपितरमपि कुक्कुट कुर्यात् ॥
अर्थात्-'यह संसार कपट से ही साधा (वश में किया) जाता है, बिना कपट किए जरा-सा भी लोक-व्यवहार नहीं चल सकता । इसलिए लोक-व्यवहार के लिए व्यक्ति को अपने पिता के साथ भी
ए। जो भी हो, स्वेच्छाचार और मायाचार, उसके कर्ता को नरकादि दर्गतियों में ले डूबते हैं । अतः सामायिक साधक महामुनि को कपटाचार एवं स्वैराचार का दुष्परिणाम बताकर सावधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-वह इस मायाचार एवं स्वच्छन्दाचार से बचकर वीतरागोक्त शास्त्रविहित साध्वाचार में या मोक्ष प्रदायक संयम में लीन रहे।२४
'वियडेंण' पलेंति का अर्थ-प्रकटेनाऽमायेन कर्मणा मोक्षे संयमे वा प्रकर्षण-कई बार सरल निश्चल एवं चमत्कार, आडम्बर आदि से रहित सीधे-सादे साधु को विवेक-विकल लोग समझ नहीं पाते, उसकी अवज्ञा, अपमान एवं तिरस्कार कर बैठते हैं। कई बार गृहस्थ लोग अपने पुत्र धनादि प्राप्ति का रोग निवारण इत्यादि स्वार्थों के लिए तपस्वी संयमी साध के पास आते हैं। उसके द्वारा कुछ भी न बतलाने या प्रपंच न करने पर वे लोग उसे मारते-पीटते हैं या उसे बदनाम करके गाँव से निकाल देते हैं। अपशब्द भी कहते हैं। ऐसी स्थिति में समतायोगी साधु को क्या करना चाहिए? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं-पीउण्ह वयसाऽहियासए-शीत या उष्ण परीषह या उपसर्ग वचन एवं उपलक्षण से मन और शरीर से समभावपूर्वक सहने चाहिए । शीत और उष्ण शब्द यहाँ अनुकूल और प्रतिकूल परीषह या उपसर्ग के द्योतक हैं।२५
चर्णिकार 'छन्वेण पलेतिमा पया' के बदले 'छण्णण पलेतिया पया' पाठान्तर मानकर छण्णण का अर्थ करते हैं-छण्णेणेति डम्भेणोवहिणा वा'-छन्न अर्थात् गुप्त-मायालिप्त, दम्भ या उपधि (कपट) के कारण । २६
अनुत्तरधर्म और उसकी आराधना
१३३ कुजए अपराजिए जहा, अक्खेहि कुसलेहि दिव्वयं ।
कडमेव गहाय णो कलिं, नो तेयं नो चेव दावरं ॥ २३ ॥
१३४ एवं लोगंमि ताइणा, बुइएऽयं धम्मे अणुत्तरे।
तं गिण्ह हितं ति उत्तम, कडमिव सेसऽवहाय पंडिए ॥ २४ ॥
२४ (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ३४६ के आधार पर __ (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० २६६ के आधार पर
२५ सूत्रकृतांग अमर सुख बोधिनी व्याख्या पृ. ३७५ के आधार पर . २६ सूयगडंग चूणि (मू० पा० टिप्पण) पु० २४