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चतुर्थ उद्देशक : गाथा ८० से ८३
व्यक्ति बहुत वाचाल होता और तर्क -युक्तिपूर्वक लोकमानस में अपनी बात बिठा देता, उसे अन्धविश्वास पूर्वक अवतारी, सर्वज्ञ, ऋषि, पुराण- पुरुष आदि मान लिया जाता था । कई बार ऐसे लोग अपने अन्धविश्वासी लोगों में ब्राह्मण, कुत्ता, गाय आदि प्राणियों के सम्बन्ध में अपनी सर्वज्ञता प्रमाणित करने के लिए आश्चर्यजनक, विसंगत एवं विचित्र मान्यताएँ फैला देते थे ।
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भगवान महावीर के युग में पूरण काश्यप, मक्खली गोशालक, अजितकेश कम्बल, पकुद्ध कात्यायन, गौतम बुद्ध एवं संजय बेलट्ठिपुत्त आदि कई तीर्थंकर माने जाने वाले व्यक्ति थे, जो सर्वज्ञ कहे जाते थे; उधर वैदिक पौराणिकों में व्यास, बादरायण, भारद्वाज, पाराशर, हारीत, मनु आदि भी थे, जिन्हें लोग उस युग के सर्वज्ञाता मानते थे यही कारण है कि शास्त्रकार ने ८०वीं सूत्रगाथा में प्रस्तुत किया है-आम जनता में प्रचलित लोकवाद को सुनने का कुछ लोगों ने हमसे अनुरोध किया है, किन्तु हमने बहुत कुछ सुन रखा है, प्रचलित लोकवाद उन्हीं विपरीत बुद्धि वाले पौराणिकों की बुद्धि की उपज है, जिसमें उन्होंने कोई यथार्थ वस्तुस्वरूप का कथन नहीं किया है । जैसे उन लोकवादियों की मान्यता भी परस्परविरुद्ध है, वैसे यह लोकवाद भी उसी का अनुगामी है । निष्कर्ष यह है कि प्रस्तुत लोक ज्ञ ेय और हेय अवश्य हो सकता है, उपादेय नहीं ।
लोकवाद : परस्पर विरुद्ध क्यों और कैसे ? - प्रश्न होता है, जब प्रायः हर साधारण व्यक्ति इस लोकवाद को मानता है, तब आप ( शास्त्रकार ) उसे क्यों ठुकराते हैं ? इसके उत्तर में ८१वीं सूत्रगाथा प्रस्तुत की गई है । कुछ वादियों के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी प्राणी हैं, वे सब मिलकर लोक कहलाता है । इस प्रकार के लोक का निरन्वय नाश नहीं होता । उनका आशय यह है कि जो जीव इस जन्म में जैसा है, परलोक में भी, यहाँ तक कि सदा काल के लिए वह वैसा ही उत्पन्न होता है । पुरुष पुरुष ही होता है, स्त्री स्त्री ही होती है । अन्वय ( वश या नस्ल) के रूप में कभी उसका नाश नहीं होता । इसलिए उन्होंने कह दिया- लोक अविनाशी है; फिर उन्होंने कहा— लोक नित्य है, उत्पत्ति-विनाश रहित, सदैव स्थिर एवं एक सरीखे स्वभाव वाला रहता है । तथा यह लोक शाश्वत है- बार-बार उत्पन्न नहीं होता, सदैव विद्यमान रहता है । यद्यपि आदि कार्य- द्रव्यों (अवयवियों) की उत्पत्ति की दृष्टि से यह शाश्वत नहीं है, तथापि कारण- द्रव्य परमाणुरूप से इसकी कदापि उत्पत्ति नहीं होतो, इसलिए यह शाश्वत ही माना जाता है, क्योंकि उनके मतानुसार काल, दिशा, आकाश, आत्मा और परमाणु नित्य है । तथा यह लोक अनन्त कालकृत कोई अवधि नहीं है, यह तीनों कालों में विद्यमान है ।
अर्थात् इसकी
७ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० २६६-२६७
(ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ४६
(ग) देखिये दीघनिकाय में -अयं देव ! पूरणो कस्सपो संघी चेव गणी च गणायरियो च जातो, यसस्सी, तित्थकरो, साधु सम्मतो बहुजनस्य रुत्तञ्ञ, चिर पव्वजितो, अद्धगतो, वयो अनुप्पत्तो मक्खलि गोसालो अजितो केस कम्बलो.'' पकुधो कच्चायनो सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो... निगण्ठो नायपुत्तो भगवा अरहं सम्मा सम्बुद्धो विज्जाचरण सम्पन्नो सुगतो लोकविदू, अनुत्तरो, पुरिस दम्म सारथिसत्थादेव मनुस्सानं, बुद्धो भगवा ति । - सुत्तपिटके दीघनिकाय, पालि भा० १ में पृ० ४१-५३