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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय ८२. अपरिमाणं विजाणाति इहमेगेसि आहितं ।
सम्वत्थ सपरिमाणं इति धीरोऽतिपासति ॥७॥ ८३. जे केइ तसा पाणा चिट्ठति अदु थावरा।
परियाए अत्थि से अंजू तेण ते तस-थावरा ॥८॥ ८०. इस लोक में किन्हीं लोगों का कथन है कि लोकवाद -पौराणिक कथा या प्राचीन लौकिक लोगों द्वारा कही हुई बातें सुनना चाहिए, (किन्तु वस्तुतः पौराणिकों का वाद) विपरीत बुद्धि की उपज है-तत्त्वविरुद्ध प्रज्ञा द्वारा रचित है, परस्पर एक दूसरों द्वारा कहो हुई मिथ्या बातों (गप्पों) का ही अनुगामी यह लोकवाद है।
८१. यह लोक (पृथ्वी आदि लोक) अनन्त (सीमारहित) है, नित्य है और शाश्वत है, यह कभी नष्ट नहीं होता; (यह किसी का कथन है।) तथा यह लोक अन्तवान, ससीम और नित्य है। इस प्रकार व्यास आदि धीर पुरुष देखते अर्थात् कहते हैं।
८२. इस लोक में किन्हीं का यह कथन है कि कोई पुरुष सीमातीत पदार्थ को जानता है, किन्तु सर्व को जानने वाला नहीं। समस्त देश-काल की अपेक्षा वह धीर पुरुष सपरिमाण-परिमाण सहित -एक सीमा तक जानता है।
८३. जो कोई त्रस अथवा स्थावर प्राणी इस लोक में स्थित हैं, उनका अवश्य ही पर्याय (परिवर्तन) होता है, जिससे वे त्रस से स्थावर और स्थाविर से त्रस होते हैं। । विवेचन-लोकवाद : एक समीक्षा-प्रस्तुत चतुःसूत्री में लोकवाद-सम्बन्धी मीमांसा है। प्रस्तुत चतुःसूत्री को देखते हुए लोकवाद के प्रस्तुत समय-अध्ययन की दृष्टि से चार अर्थ फलित होते है(१) लोकों पौराणिक लोगों का वाद-कथा या मत प्रतिपादन, (२) लोकों-पाषण्डियों द्वारा प्राणियों के जन्म-मरण (इहलोक-परलोक) के सम्बन्ध में कही हुई विसंगत बातें, (३) लोक की नित्यता-अनित्यता, अनन्तता-सान्तता आदि के सम्बन्ध में विभिन्न पौराणिको के मत, और (४) प्राचीन लोगो द्वारा प्रचलित परम्परागत अन्धविश्वास की बातें-लोकोक्तियाँ। वृत्तिकार ने इन चारों ही अर्थों को प्रस्तुत चारों सूत्रगाथाओं (८० से ८३ तक) की व्याख्या में ध्वनित कर दिया है। शास्त्रकार ने प्रस्तुत चतु:सूत्री की चारो गाथाओं में निम्नोक्त समीक्षा की है-(१) लोकवाद : कितना हेय-ज्ञ य या उपादेय है ? (२) कुछ कहते हैं-यह लोक अनन्त, नित्य, शाश्वत एवं अविनाशी है। दूसरे कहते हैं-लोक अन्तवान है, किन्तु नित्य है, (३) पौराणिकों आदि का अवतार लोकवादी है, जो अपरिमित ज्ञाता है तथा सपरिमाण ज्ञाता है, और (४) वस त्रस ही रहते हैं, स्थावर स्थावर ही, इस लोकवाद का खण्डन।
___ बहुचर्चित लोकवाद क्यों और कब से ?-शास्त्रकार ने लोकवाद की चर्चा इसलिए छेड़ी है कि उस युग में पौराणिकों का बहुत जोर था। लोग उन पौराणिकों को सर्वज्ञ मानते और कहते थे उनसे आगमनिगम की. लोक-परलोक की, मरणोत्तर लोक के रहस्य की या प्राणी की मरणोत्तर दशा की. अथवा प्रत्यक्ष दृश्यमान सृष्टि (लोक) की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की बहुत चर्चाएँ करते थे। उस युग में जो