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________________ सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय __ कुछ पौराणिकों के मतानुसार यह लोक अन्तवान् है । जिसका अन्त अथवा सीमा हो, उसे अन्तवान् कहते हैं । लोक ससीम-परिमित है । क्योंकि पौराणिकों ने बताया है--"यह पृथ्वी सप्तद्वीप पर्यन्त है, लोक तीन है, चार लोक संनिवेश है, इत्यादि । इस दृष्टि से लोकसीमा दृष्टिगोचर होने के कारण यह अन्तवान् है। किन्तु सपरिमाण (ससीम) होते हुए भी यह लोक नित्या है, क्योंकि प्रवाहरूप से यह सदैव दृष्टिगोचर होता है। बौद्धधर्म के दीर्घनिकाय ग्रन्थ के ब्रह्मजाल सुत्त में बताया गया है कि "कितने ही श्रमण ब्राह्मण एक या अनेक पूर्वजन्मों के स्मरण के कारण कहते हैं-यह आत्मा और लोक नित्य, अपरिणामी, कटस्थ और अचल हैं, प्राणी चलते-फिरते, उत्पन्न होते और मर जाते हैं, लेकिन अस्तित्व नित्य है।...."कितने ही श्रमण और ब्राह्मण हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं...... लोक का प्रलय हो जाता है, तब पहले-पहल जो उत्पन्न होता है वह पीछे जन्म लेने वाले प्राणियों द्वारा नित्य, ध्र व, शाश्वत अपरिणामधर्मा और अचल माना जाता है, अपने आपको उस (ब्रह्मा) से निर्मित किये जाने के कारण अपने को अनित्य, अध्र व, अशाश्वत, परिणामी और मरणशील मानता है।" ......."कितने ही श्रमण-ब्राह्मण लोक को सान्त और अनन्त मानते हैं ।......"यह लोक ऊपर से सान्त और दिशाओं की ओर से अनन्त है।" शास्त्रकार ने इसका खण्डन करते हुए कहा है- 'इति धीरोऽतिपासति' इसका आशय यह है कि लोकवाद इस प्रकार की परस्पर-विरोधी और विवादास्पद बातों का भण्डार है, जो व्यास आदि के समान किसी साहसिक बुद्धिवादी (धीर) पुरुष का अतिदर्शन है-अर्थात् वस्तुस्वरूप के यथार्थ दर्शन का अतिक्रमण है। इस वाक्य में से यह भी ध्वनित होता है कि वस्तुस्वरूप का यथार्थ दर्शन वही कर जिसका दर्शन सम्यक् हो । इसीलिए चूर्णिकार ने पाठान्तर माना है, एवं 'वीरोऽधिपासति' इस प्रकार वादवीर सामान्य जनों से अधिक देखता है, वह सर्वज्ञ नहीं है। लोकवाद को ऐकांतिक एवं युक्तिविरुद्ध मान्यताएं-पौराणिक आदि लोकवादियों की सर्वज्ञता के सम्बन्ध में शास्त्रकार ने यहाँ दो मान्यताएँ प्रस्तुत की हैं-(१) एक मान्यता तो यह है, जो पौराणिकों ८ (क) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या पृ० २६२-२६३ के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ४६-५० के आधार पर (ग) 'सप्तद्वीपा वसुन्धरा' इत्यादि बातें पुराणों में वर्णित हैं। (घ) ..."एकच्चो समणो ब्राह्मणो वा""अन्तसञी लोकस्सि विहरति । सो एवमाह -अन्तवा सयं लोको परि वटुमो। ""एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा "अनन्तसञ्जी लोकस्सि विहरति "सो एवमाह-अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो । (क) सूत्रकृतांग शीलांक वृत्ति, पत्रांक ४६ के आधार पर (ख) सूत्रकृतांग अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ० २६३ के आधार पर (ग) सूयगडंग चूणि (मूलपाठ टिप्पण) पृ० १४
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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