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________________ ८१ तृतीय उद्देशक : गाथा ७२ से ७५ ७२. बुद्धिमान् साधक इन (पूर्वोक्त वादियों के कथन पर) चिन्तन करके (मन में यह निश्चित कर ले कि (पूर्वोक्त जगत् कर्तृत्ववादी या अवतारवादी) ब्रह्म=आत्मा की चर्या (सेवा या आचरण) में स्थित नहीं है। वे सभी प्रावादुक अपने-अपने वाद की पृथक्-पृथक् वाद (मान्यता) की बढ़ा-चढ़ाकर प्रशंसा (बखान) करने वाले हैं। ____७३. (विभिन्न मतवादियों ने) अपने-अपने (मत में प्ररूपित) अनुष्ठान से ही सिद्धि (समस्त सांसारिक प्रपञ्च रहित सिद्धि) होती है, अन्यथा (दूसरी तरह से) नहीं, ऐसा कहा है । मोक्ष प्राप्ति से पूर्व इसी जन्म एवं लोक में ही वशवर्ती (जितेन्द्रिय अथवा हमारे तीर्थ या मत के अधीन) हो जाए तो उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। ७४. इस संसार में कई मतवादियों का कथन है कि (हमारे मतानुसार अनुष्ठान से) जो सिद्धि (रससिद्धि या अष्टसिद्धि प्राप्त) हुए हैं, वे नीरोग (रोग मुक्त) हो जाते हैं । परन्तु इस प्रकार की डींग हाँकने वाले) वे लोग (स्वमतानुसार प्राप्त) तथाकथित सिद्धि को ही आगे रखकर अपने-अपने आशय (दर्शन या मत) में ग्रथित (आसक्त/ग्रस्त-बँधे हुए) हैं। — ७५. वे (तथाकथित लौकिक सिद्धिवादी) असंवृत-इन्द्रिय मनःसंयम से रहित होने से (वास्तविक सिद्धि मुक्ति तो दूर रही) इस अनादि संसार में बार-बार परिभ्रमण करेंगे । वे कल्पकाल पर्यन्त-चिरकाल तक असुरों-भवनपतिदेवों तथा किल्विषिक (निम्नकोटि के) देवों के स्थानों में उत्पन्न होते हैं। - विवेचन - अन्यतीथिक मतवादी प्रावादुक और स्वमत प्रशंसक-७२ वीं गाथा में शास्त्रकार ने पूर्वोक्त जगत्कर्तृत्ववादियों, अवतारवादियों को 'पृथक् प्रावादुक' कहकर उल्लिखित किया। प्रावादुक होने के दो कारण शास्त्रकार ने प्रस्तुत किये हैं—(१) कार्य-कारण विहीन तथा युक्ति रहित अपने ही मतवाद की प्रशंसा करते हैं, और (२) आत्म-भावों के विचार में स्थित नहीं हैं। इन्हीं दो कारणों को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार ने अगली दो गाथाएँ (७३-७४ वीं) प्रस्तुत की हैं। ___इन भ्रान्त मान्यताओं के कारण राग-द्वेष-मुक्त एवं कर्म बीज रहित मुक्त जीवों का पुनः रागद्वष से प्रेरित होकर कर्मलिप्त बनना कार्य-कारण भाव के सिद्धान्त के विरुद्ध है। जब मुक्त जीवों के जन्म-मरणरूप संसार के कारण कर्म बीज ही जल गये हैं, तब वे कर्म के बिना कैसे राग-द्वेष से लिपटेंगे और कैसे संसार में अवतरित होंगे? देखा जाये तो इस भ्रान्त धारणा का कारण यह है कि वे अपने अवतारवाद के प्रवाह में इतने बह जाते हैं कि आत्मा की ऊर्ध्वगामिता के सिद्धान्त पर विचार करना भूल जाते हैं। जब एक आत्मा इतने उत्कर्ष पर पहुंच चुका है, जहां से उसका पुन: नीचे गिरना असम्भव है, क्योंकि आत्मा का स्वभाव कर्म लेप से रहित होने पर अग्नि की लौ की तरह ऊर्ध्वगमन करना है, नीचे गिरना नहीं । ऐसी स्थिति में पूर्ण सिद्ध-मुक्तात्मा क्यों वापस संसार में आगमन रूप पतन के गर्त में गिरेगा? यही कारण है कि आचार्य सिद्धसेन को अवतारवादी अन्यतैर्थिकों की मोहवृत्ति को प्रगट करते हुए कहना पड़ा
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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