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________________ सूचकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय दग्धेन्धनः पुनरूपति भवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनक्धारितभीनिम्ठम् । मुक्तः स्वयं कृतमवश्च परार्थशूरम्, त्वच्छासनप्रतिहतेस्विह मोहराज्यम् ॥३२ - हे वीतराग प्रभो ! आपके शासन (संघ) को ठुकराने वाले व्यक्तियों पर मोह का प्रबल साम्राज्य छाया हुआ है। वे कहते हैं-जिस आत्मा ने कर्म रूपी ईन्धन (कारण) को जला कर संसार (जन्म-मरण) का नाश कर दिया है, वह भी मोक्ष को छोड़कर पुनः संसार में अवतार लेता है। स्वयं मुक्त होते हुए भी शरीर धारण करके पुनः संसारी बनता है, केवल दूसरों को मुक्ति दिलाने में शूरवीर बनकर वह कार्यकारण सिद्धान्त का विचार किये बिना ही लोकभीरु बनता है। यह है अपनी (शुद्ध) आत्मा का विचार किए बिना ही दूसरों की आत्माओं का उद्धार या सुधार करने की मूढ़ता। यह निश्चित सिद्धान्त है कि मुक्त जीवों को राग-द्वेष नहीं हो सकता। उनके लिए फिर स्वशासन या परशासन का भेद ही कहाँ रह जाता है ? जो सारे संसार को एकत्व दृष्टि से-आत्मौपम्य दृष्टि से देखता है, वहाँ अपनेपन-परायेपन या मोह का काम ही क्या ? जिनकी अहंता-ममता (परिग्रह वृत्ति) सर्वथा नष्ट हो चुकी है, जो राग-द्वेष, कर्म-समूह आदि को सर्वथा नष्ट कर चुके हैं, जो समस्त पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानते हैं, निन्दा-स्तुति में सम हैं, ऐसे निष्पाप, शुद्ध आत्मा में राग-द्वेष होना कदापि सम्भव नहीं और राग-द्वेष के अभाव में कर्म-बन्धन कैसे हो सकता है ? कर्म के सर्वथा अभाव में संसार में पुनरागमन (जन्म-मरण) हो ही नहीं सकता। दूसरा कारण है-उन परतीर्थिकों का अपने ही ब्रह्म कत्व-विचार में स्थित न रहना। जब वे संसार की समस्त आत्माओं को सम मानते हैं, तब उनके लिए कौन अपना, कौन पराया रहा? फिर वे अपने-अपने भूतपूर्व शासन का उत्थान-पतन का विचार क्यों करेंगे? यह तो अपने ब्रह्म कत्व विचार से . हटना है। इस प्रकार कार्य-कारण भाव न होते हुए भी या सिद्धान्त एवं युक्ति से विरुद्ध होते हुए भी अपनेअपने मतवाद की प्रशंसा और शुद्ध आत्मभाव में अस्थिरता, ये दोनों प्रबल कारण अन्य मतवादियों की भ्रान्ति के सिद्ध होते हैं। निष्कर्ष यह है कि जैन-दर्शन जैसे शिव (निरुपद्रव-मंगल कर), अचल (स्थिर), अरूप (अमूर्त), अनन्त (अनन्त ज्ञानादियुक्त) अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति (संसार में आवागमन रहित) रूप सिद्धिगति को ही मुक्ति मानता है और ऐसे सिद्ध को समस्त कर्म, काया, मोह-माया से सर्वथा रहित-मुक्त मानता है, वैसे अन्यतीर्थी नही मानते। उनमें से प्रायः कई तो सिद्धि को पुनरागमन युक्त मानते हैं, तथा सिद्धि का अर्थ कई मतवादी मुक्ति या मोक्ष मानते हैं, लेकिन सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तप से या ज्ञान ३२ द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका (सिद्धसेनकृत) ३३ (क) “यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मवाभूद् विजानतेः। - तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ? ॥६॥-ईशोपनिषद् (ख) तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी सन्तुष्टो येन केन चित् । -गीता अ० १३/१६
SR No.003438
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Ratanmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages565
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, & agam_sutrakritang
File Size11 MB
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