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सूत्रकृतांग-प्रथम अध्ययन-समय
सज्जनों की रक्षा एवं दुर्जनों के संहार के रूप में अपनी लीला करते हैं। ऐसी लीला के समय जब वे दुष्टों का नाश करते हैं, तब अपने भक्त की रक्षा के लिए हर सम्भव प्रयत्न करते हैं, ऐसा करने में उनमें द्वेष एवं राग का होना स्वाभाविक है। इसीलिए इस गाथा में उक्त 'कोडापबोसेण' के साथ अर्थ संगति बैठ जाती है।
पाठान्तर एवं व्याख्याएं-७१ वीं गाथा की पूर्वाद्ध-पंक्ति का चूर्णि सम्मत पाठान्तर इस प्रकार है"इह संवुडे भवित्ताणं, (सु सिद्धीए चिट्ठती)-पेच्चा होति अपावए " इसकी व्याख्या इस प्रकार की गई है -इह-यहाँ आकर मनुष्य भव में वयस्क होकर प्रव्रज्या ग्रहण करके संवृतात्मा होकर जानक अर्थात्ज्ञानवान आत्मा (जिसका ज्ञान प्रतिपाती नहीं होता) (शुद्ध होकर सिद्धिगति-मुक्ति में स्थित हो जाता है।) अथवा यह (मेरे द्वारा प्रवर्तित) शासन (धर्म संघ) जाज्वल्यमान नहीं होता, इसलिए उसे जाज्वल्यमान करके कुछ काल तक संसार में अवस्थित होकर वहाँ से शरीर छोड़कर पुनः अपापक अर्थात् मुक्त हो जाता है । इसी प्रकार ७० वीं गाथा के उत्तराद्ध का चूर्णिसम्मत पाठान्तर है-"पुणोकालेगणंतेण तत्थ से अवरज्मति ।" अर्थात् अनन्तकाल के बाद स्वशासन को पूज्यमान या अपूज्यमान (प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित) देखकर वह उस पर अवरज्झति-यानि अपराध करता है । अर्थात् राग या द्वेष को प्राप्त हो जाता है। "वियर्ड वा जहा भुज्जो नोरयं सरयं तया' की व्याख्या वृत्तिकार के अनुसार-विकटवत्उदक (पानी) के समान । जैसे रज (मिट्टी) रहित निर्मल पानी, हवा, आँधी आदि से उड़ायी हुई धूल से पुनः सरजस्क-मलिन हो जाता है।" स्व-स्व-प्रवाद-प्रशंसा एवं सिद्धि का दावा
७२ एयाणुवोति मेधावि बंभचेरे ण ते वसे।
पुढो पावाउया सव्वे अक्खायारो सयं सयं ॥१३॥ ७३ सए सए उवट्ठाणे सिद्धिमेव ण अन्नहा।
अहो वि होति वसवत्ती सव्वकामसमप्पिए ॥१४॥ ७४, सिद्धा य ते अरोगा य इहमेगेसि आहितं ।
सिद्धिमेव पुराकाउं सासए गढिया णरा ॥१५॥ ७५ असंवुडा अणादीयं भमिहिति पुणो पुणो।
कप्पकालमुवज्जति ठाणा आसुर किबिसिय ॥१६॥ त्ति बेमि ।
"इहेति-इह आगत्य मानुष्ये वयः प्राप्य प्रवामभ्युपेत्य संवृतात्मा भूत्वा, जानको नाम जानक एव आत्मा न तस्य तज् ज्ञान प्रतिपतति, यदि वा एतत् (यतश्चैतत् शासनं न ज्वलति, तत एवं प्रज्वाल्य किञ्चित्कालं संसारेऽवस्थित्य प्रेत्य पुनरपापको भवति मुक्त इत्यर्थः ।" . "एवं पुनरनन्तेन कालेन स्वशासनं पूज्यमानं वा अपूज्यमानं दृष्टवा तत्थ से अवरज्झति=अवराधो णाम रागं दोसं वा गच्छति।"
-सूयगडंग (चूणि मू० पा० टिप्पण) पृ० १२ ३१ विकटवद् उदकवद नीरजस्कं सद् वातोबूतरेणु निवहसम्पृक्त सरजस्कं मलिनं भूयो यथा भवति, तथाऽयमप्यात्मा ॥
-सूत्र. शी० वृत्ति ४५