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________________ ६४ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध सकती है तथा स्नान, शौच आदि करने के स्थान के सामने या द्वार पर खड़े होने से साधु के देखते शौचादि क्रिया निःशंक होकर गृहस्थ न कर सकेगा, विरोध और विद्वेष और अपमान का भाव भी साधु के प्रति जग सकता है। गवाक्ष, दीवार की सन्धि आदि स्थानों की ओर अंगुलि आदि से संकेत करके देखने-दिखाने से किसी वस्तु के चुराये या नष्ट हो जाने पर साधु के प्रति शंका हो सकती है। उसके चरित्र पर भी संदेह उत्पन्न हो सकता है। इसी प्रकार अंगुलि से इशारा करके, धमकी दिखाकर या खुजलाकर अथवा प्रशंसा करके आहार लेना भी भय, दैन्य और लोलुपता आदि का द्योतक है। इन सब एषणा-दोषों से बचना चाहिए। 'दगच्छड्डणमेत्तए' आदि पदों का अर्थ – दगच्छड्डणमेत्तए – झूठे बर्तन आदि को धोया हुआ पानी डालने के स्थान में, चंदणिउयए – हाथ-मुँह धोने या पीने का पानी बहाने के स्थान में, वच्चस्स - मूत्रालय या शौचालय के, आलोयं- आलोक - प्रकाश स्थान – बारी, झरोखा या रोशनदान आदि को, थिग्गलं - मरम्मत की हुई दीवार आदि को, संधिं - दीवार की संधि को, उष्णमिय-ऊँचा करके, ओणमिय-नीचे झुकाकर,णिज्झाएज्झा-देखे-दिखाये, उक्खुलंपिय - खुजलाकर, वंदिय - स्तुति या प्रशंसा करके, तज्जिय- धमकी या डर दिखाकर। संसृष्ट-असंसृष्ट आहार-ग्रहण का निषेध-विधान-सूत्र ३६० के उत्तरार्ध में हाथ, मिट्टी का बर्तन, कुड़छी तथा कांसे आदि का बर्तन, सचित्त जल आदि से संसृष्ट हो तो आहार ग्रहण करने का निषेध और इनसे असंसृष्ट हाथ आदि से ग्रहण करने का विधान किया गया है। संक्षेप में सचित्त वस्तु से संसृष्ट आहार लेने का निषेध तथा उससे असंसृष्ट वस्तु लेने का विधान है। २ निशीथभाष्य की चूर्णि में संसृष्ट के १८ प्रकार बतलाए गए हैं - . (१) पूर्वकर्म २ (साधु के आहार लेने से पूर्व हाथ आदि धोकर देना)। (२) पश्चात्कर्म (साधु के आहार लेने के पश्चात् हाथ आदि धोना)। (३) उदका ' (बूंदें टपक रही हों, इस प्रकार से गीले हाथ आदि)। (४) सस्निग्ध ५ (केवल गीले-से हाथ किन्तु बूंदें न टपकती हों आदि)। (५) सचित्त मिट्टी ६ (मिट्टी का ढेला या कीचड़)। १. टीका पत्र ३४० (ख) तुलना कीजिए -आलोयं थिग्गलं द्वारं संधि-दगभवणाणि य। चरंतो न विणिज्झाए, संकट्ठाणं विवजए॥ - दशवै० ५/१/१५ २. टीका पत्र ३४१से ३. पुरेकम्मं नाम जं साधूणं दद्वर्ण हत्थं भायणं धोवई...। - दशवै० जिनदास चूर्णि पृ० १७८ ४. उदकाोनाम गलदुदकबिन्दुयुक्तः। - दशवै० हारिभद्रीय टीका पृ० १७० ५. जं उदगेण किंचि णिद्धं, ण पुण गलति तं संसिणिद्ध। - अगस्त्य० चूर्णि पृ० १०८ ६. मट्टियाकडउमट्टिया चिक्खलो। -जि० चू० पृ० १७९
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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