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________________ ५८ आचारांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध ___ (४) यदि वे श्रमणादि उस आहार-सामग्री का सम्मिलित उपयोग करने का अनुरोध करें तो स्वयं ही सरस, स्वादिष्ट आहार पर हाथ साफ न करे, सबके लिए रखे। (५) वह श्रमणादि भिक्षाचरों को गृहस्थ के यहाँ पूर्व-प्रविष्ट देखकर उन्हें लांघकर न प्रवेश करे और न आहार-याचना करे, अपितु उनके यहाँ से निवृत्त होने के बाद ही वह प्रवेश करे व आहार-याचना करे। १ इन पाँचों परिस्थितियों में शास्त्रकार ने निर्ग्रन्थ साधु को समभाव की नीति, संयम-रक्षा, साधुता, निश्छलता के अनुकूल अपने आप को ढाल लेने का निर्देश किया है। इन पाँचों परिस्थितियों में साधु के लिए - विधि-निषेध के निर्देशों को देखते हुए स्पष्ट ध्वनित होता है कि जैन साधु नियमों की जड़ता में अपने आपको नहीं जकड़ता, वह देश, काल, परिस्थिति, पात्रता और क्षमता के अनुरूप अपने आप को ढाल सकता है। इससे यह भी स्पष्ट ध्वनित हो जाता है कि दूसरे भिक्षाचरों को देखकर वह उनकी सुख-सुविधाओं एवं अपेक्षाओं का भी ध्यान रखे, सामूहिक आहार-सामग्री मिलने पर वह उनसे घृणा-विद्वेषपूर्वक नाक-भों सिकोड़ कर चुपचाप अपने आप को अकेला ही उस सामग्री का हकदार न माने, बल्कि उन भिक्षाचरों के पास जाकर सारी परिस्थिति निश्छल भाव से स्पष्ट करे, विभाजन का अस्वीकार और उसमें पक्षपात न करे, न ही सहभोजन के प्रस्ताव पर उनसे विमुख हो। २ वृत्तिकार निर्ग्रन्थ साधु के इस व्यवहार का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं - "इस प्रकार का - (सब का साझा) आहार उत्सर्गरूप में ग्रहण नहीं करना चाहिए; दुर्भिक्ष, मार्ग चलने की थकान, रुग्णता आदि के कारण अपवाद रूप में वह आहार ग्रहण करे।" . किन्तु हम सब एकत्र स्थिर होकर खाएँगे-पीएँगे, (शाक्यादि-भिक्षुओं के इस प्रस्ताव पर).. पर-तीर्थकों के साथ नहीं खाना-पीना चाहिए, स्व-यूथ्यों, पार्श्वस्थ आदि और साम्भोगिक साधुओं के साथ उन्हें आलोचना देकर आहार पानी सम्मिलित करना चाहिए। ३ १. तुलना करिये - समणं माहणं वा वि, किविणं वा वणीमगं। उवसंकमंतं भत्तट्टा, पाणट्टाए व संजए॥१०॥ तं अइक्कमित्तु न पविसे, न चिट्टे चक्खु-गोयरे। एगंतमवक्कमित्ता, तत्थ चिट्टेज संजए ॥११॥ वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा। अपत्तियं सिया होज्जा, लहत्तं पवयणस्स वा ॥१२॥ पडिसेहिए व दिने वा, तओ तम्मि नियत्तिए। उवसंकमेज भत्तट्ठा, पाणट्ठाए व संजए॥१३॥ - दशवै० अ० ५/उ० २ २. आचारांग मूल पाठ तथा टीका पत्र ३३९ के आधार पर 3. (क) टीका पत्र ३३९ (ख) टीकाकार ने इस विधि को साधु का सामान्य आचार नहीं माना है, विशेष परिस्थितियों में बाध्य होकर ऐसा करना पड़े, तो वहाँ अत्यन्त सरलतापूर्ण भद्र व्यवहार करने की सूचना है। -सम्पादक
SR No.003437
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1990
Total Pages510
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Conduct, & agam_acharang
File Size10 MB
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